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बिहारी-रत्नाकर

इही आस अटक्यौ रहेतु अलि गुलाब के मूल । हैहैं फेरि बसंत ऋतु इन डारनु वे फूल ॥ ४३७॥

(अवतरण)-किसी राजा की संपत्ति नष्ट हो जाने पर गुणीजन उसका संग नहीं छोड़ते। उनको यह पाशा रहती है कि सुअवसर प्राप्त होने पर फिर उसी संपत्ति से वह संपन्न होगा। इसी विषय को कवि, भ्रमर पर अन्योक्कि कर के, कहता है

(अर्थ)-गुलाब की [ फूल-पत्तियों से रहित हूँठी ] जड़ (पेड़ी) में भ्रमर इसी माशा से अटका (निरत ) रहता है । कि] वसंत ऋतु में फिर इन डालों में वे फूल [जिनका आनंद मैं लेता था] होंगे॥

गुलाब की पेड़ी में भ्रमर अटका नहीं रहता । यह कवि की कल्पित प्रौढोक्ति मात्र है ॥

वे न इहाँ नागर, बढ़ी जिन आदर तो आब।
फूल्यौ अनफूल्यौ भयौ गवँई-गावँ, गुलाब॥४३८॥

आब-यह शब्द फ़ारसी का है। इसका मुख्यार्थ जल है; पर यह चमक, ओप इत्यादि के अर्थ मेँ, जिसमें संस्कृत शब्द पानिप प्रयुक्त होता है, प्रचलित है। इस अर्थ मेँ 'आब' शब्द स्त्रीलिंग माना जाता है। गवँई-गावँ=गवाँरों के गावँ अर्थात् वास-स्थल मेँ॥

(अवतरण)-मूर्खमंडली मेँ पड़े हुए किसी गुणी के गुण का निरादर देख कर उससे कोई चतुर, गुलाब पर अन्योक्ति कर के, कहता है-

(अर्थ)-हे गुलाब, यहाँ वे नागर [नगरनिवासी गुणग्राहक] नहीँ हैँ, जिनके आदर से तेरी आब (शोभा, प्रतिष्ठा) बढ़ी हुई है (अर्थात् तू सम्मानित होता है)। [इस] गवाँरोँ की बसती में [तो तू] फूला हुआ [भी] (विकसित गुण होने पर भी) अनफूला (बिना फूला हुआ, अर्थात् अविकसित-गुण) हो रहा है [भाव यह है कि यहाँ तेरे गुण का विकास होना न होना बराबर है]॥

चल्यौ जाइ, ह्याँ को करै हाथिनु के व्यापार।
नहिँ जानतु, इहिँ पुर बसैँ धोबी, ओड़, कुँभार॥४३९॥

ओड़-घरोँ का ईँट, चूना इत्यादि गदहोँ पर ढोने वाले॥

(अवतरण)-किसी महान् गुणी पुरुष को, अपने गुणोँ का ग्राहक प्राप्त करने की आशा से, निकट जनोँ की मंडली मेँ आया हुआ देख दर, कोई सजन, हाथी के व्यापारी पर अन्योक्ति कर के, उससे वहाँ से चले जाने की प्रस्तावना करता है-

(अर्थ)-[अरे हाथी के व्यापारी, महान् गुणी, तू यहाँ से] चला जा, यहाँ हाथियोँ के (अर्थात् तेरे महान् गुणों के) व्यापार (क्रय, विक्रय, गुण-ग्राहकता) कौन १. इहि पासा ( ३, ४ ) । २. रहै ( २ ) । ३. बरी ( ४ ) । ४. गाम ( २, ३, ५. ) । ५. को ( १, ४)। ६. सबै ( १, ४)।