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बिहारी-रत्नाकर है ( अग्रसर नहीं हो सकता ), [ और ] हार [ यद्यपि ] गले पड़ कर रहता है, तथापि [ उसे ] हृदय पर रखना [ ही ] योग्य है ॥
| इस दोहे मैं ‘मूढ़ चढ़ाएँ’, ‘पस्यौ पाठि’, ‘ग परि', 'हिउँ पर', इन चारों के मुख्यार्थ तथा लक्ष्यार्थ, दोन पर कवि की ताक झाँक है, एवं कच' तथा 'हार' शब्द के कञ्चे, अर्थात् सब काम मैं कच्चे मनुष्य, एवं हार ( हारक ), अर्थात् सब गुण मैं दक्ष, अर्थों पर भी कवि की दृष्टि प्रतीत होती है।
करतु जातु जेती कटनि बढि रस-सरिता-सोतु ।
श्रालयाल उर प्रेम-तरु तितौ तितौ दृढ़ होतु ।। ४५२ ।। कटनि = काट । रस-पक्ष में इसका अर्थ हृदय में घाव करना, और जल-पक्ष में नदियों के द्वारा करारे का काटा जाना, होता है ॥ रस= मिलने का चाव तथा जल । इस शब्द में श्लिष्टपद-मूलक रूपक है । सोतु ( श्रोत )= सोता, धारा ॥
( अवतरण )-नायिका नायक के प्रेम का वृत्तांत सुन कर उससे मिलने को उद्यत हो गई है। पर सखी उसको, नायक का प्रेम दृढ़ करने के निमित्त, शिक्षा देती है कि अभी कुछ समय तक तरसा कर नायक का प्रेम रढ़ हो जाने दे। यह मत समझ कि इस तरसाने से कह” उसका प्रेम जाता न रहे । सच्चे प्रेम की तो यह व्यवस्था है कि जितना ही मनुष्य का चाव बढ़ता है, उतना ही उसका प्रेम दृढ़ होता है
( अर्थ )-चाव-रूपी जल की नदी का प्रवाह बढ़ कर जितनी जितनी काट करता जाता है, उतना उतना हृदय-रूपी आलबाल में प्रेमरूपी तरु दृढ़ होता जाता है ॥
विलक्षणता यह है कि सामान्य नदी के बढ़ कर काट करने पर करारे के वृक्ष की जड़े निर्बल पड़ जाती हैं, जिससे वृक्ष ढह जाते हैं, पर चाव-नदी के बढ़ कर काट करने पर प्रेम-तरु हृदय में और भी रद होता है ॥
राति यौस हाँसै रहै, मानु न ठिकु ठहराइ ।
जेतौ औगुनु हँढियै, गुनै हाथ परि जाइ ।। ४५३ ॥ हौसै= हवस ही । फ़ारसी भाषा में 'हवस' तृष्णा, अर्थात् अभिलाषा, को कहते हैं । ठिकु= ठहरा हुआ, स्थिर ।। औगुनु ( अवगुण ) = दोष, वोट ।
( अवतरण )-प्रेमगर्विता नायिका का वचन सखी से--
| ( अर्थ )-[ हे सखी, मुझे तो मान करने की ] प्रबल अभिलाषा ही रात दिन (सदैव ) रहती है [ कि नायक कुछ अपराध करे, तो मैं भी मान करने का स्वाद चख लँ। पर वह तो सदा मेरी सुश्रुषा में ऐसा लगा रहता है, और अन्य स्त्री की ओर से ऐसा विरक्त है कि मेरा ] मान स्थिर नहीं ठहरता । जितना [ ही उसका ] अवगुण [ मान
१. ठिकु न ( १ ), ठकि न ( ५ ) । २. गुन्हे ( १ ), गुन्वे ( ४ )।
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बिहारी-रत्नाकर