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विहारी-रत्नाकर १८७ करने के बहाने के निमित्त ] हूँढ़ा जाता है, [ उतना ही उसका ] गुण ही हाथ पड़ जाता है ( मिल जाता है )[ अतः मैं मान करने के स्वाद से वंचित ही रहती हैं]॥ मनु न मनावन कौं” करै, देतु रुठाइ रुठाइ । कौतुक-लाग्यौ प्यौ प्रिया-खिझहूँ रिझवति जाइ ॥ ४५४ ॥ कौतुक-लाग्यौ = कौतुक अर्थात् खिलवाड़ में लगा हुया । यह समस्त पद प्यौ' का विशेषण है । खिझ ( खीझ )= वेढ, रोष-पूर्वक कुछ कहना अथवा करना । | ( अवतरण )-नायक को नायिका के खीझने का भाव ऐसा अच्छा लगता है कि वह मनाते मनाते फिर वही भाव देखने के निमित्त कोई ऐसी बात बोल उठता है कि नायिका फिर रूठ जाती है, और वह फिर से मनाना प्रारंभ करता है । इसी कौतुक मैं नायक लगा हुआ है । सखी-वचन सखी से-- ( अर्थ )-कौतुक ( खिलवाड़ ) में लगे हुए प्रियतम को प्रिया की स्वीझ भी रिझाती जाती है। [ अतः उसका ] मन [उसे ] मनाने का नहीं करता, [ और जव यह कुछ मानने पर आती है, तो जान बूझ कर फिर उसे ] खिझा खिझा ( रुष्ट कर कर ) देता है। विरह-विपति-दिनु परत हीं तजे सुखनु सब अंग। रहि अब लौं” ऽ दुखी भए चलाचलै जिय-संग ॥ ४५५॥ ( अवतरण )-प्रोषितपतिका नायिका अपनी पत्रिका में नायक को अपनी दीन दशा लिखती है, और यह भी सूचित करती है कि अब मेरे प्राण चलने ही पर उद्यत हैं | ( अर्थ )विरह-रूपी विपत्ति के दिन ( अवसर, समय ) के पड़ते ही सुखों ने [ तो] सव अंग छोड़ [ ही ] दिए [ थे] ( मेरे सब अंग सुखानुभव से वंचित हो गए थे), [ और] अब तक रह कर अब दुःख भी प्राणों के साथ चलाचल ( चलने पर उद्यत ) ही हो रहे हैं (चला ही चाहते हैं ) ॥ | इस दोहे का ध्वन्यार्थ यह हुआ कि सब अंग को सुख तो छोड़ ही गए थे ; अब दुःख भी उन्हें छोड़ कर प्राण के साथ जाया ही चाहते हैं, अर्थात् अब शरीर में दुःख तथा सख, दोन ही न रह जायँगे ; पर प्रार्थों के दुःख शरीर-त्याग के पश्चात् भी होता रहेगा, क्योंकि तुःख प्राण के साथ ही चलाचल हो रहे हैं। अतः आप पधार कर दुःख से प्राण का पिंड छुड़ाइए ॥ 'चलाचलै’ ( चलाचल ही ) मैं जो ‘ही है, उससे व्यंजित होता है कि प्राण शीघ्र ही निकला चाहते हैं। अतः नायक को आने मैं किंचिन्मात्र भी विलंब न करना चाहिए । १. मान मनौवन ( ३ ) । २. कौतिक (१,४ ), कौतिग ( २ ) । ३. खीझ रीझवति (४) । ४. सब दुख ( ३, ५) । ५. चला चलू, चलाचली ( २ )।