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बिहारी-रत्नाकर

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विहारी-रत्नाकर उस समय भी अलक्षित रूप से था । पर अब जब प्रवास के कारण उसे आपका दर्शन मिलमा भी बंद हो गया, तो क्लेशाधिक्य के कारण वह उसे छिपा न सकी-- | ( अर्थ )-[ उस समय, जब कि आप वहाँ उपस्थित थे, उसके ] हृदय-रूपी कागज़ में स्नेह [ विद्यमान तो था, पर ] अलक्षित हो गया [ था, और ] टाँक [ भर भी ] (किंचिन्मोत्र भी ) [ इस बात की ] ‘लखाइ' (पहिचान) नहीं हुई।[ पर ] अव विरहाग्नि से तपने पर सेंड के [ आँक ] ऐसा वह आँक उघरा ( प्रकट हुआ } ॥ | इस दोहे में कवि ने इस स्वाभाविक बात को भी प्रकाशित किया है कि जब कोई मनुष्य अथवा पदार्थ उपस्थित रहता है, तो उसकी विशेष चाह नहीं की जाती, पर जब व दुर्लभ हो जाता है, तो उसकी आकांक्षा दुःख देती है । | इस दोहे के ‘छतौ' शब्द के विषय में वर्तमान विद्वान मैं मतभेद है। कोई तो इसका अर्थ था करते हैं, और किसी के मत मैं छत' को अर्थ था होना संशयात्मक है । उनकी समझ में छतौ' के स्थान पर 'छप्यौ' पाठ विशेष संगत है । हमारी पाँच प्राचीन पुस्तक में से चार के अनुसार सो ‘छतौ' ही पाठ ठीक ठहरता है; और केवल चार अंक की पुस्तक मैं ‘छयौ' पाठ है। प्राचीन टीका में से अनबरचंद्रिका, कृष्ण कवि की टीका, रसचंद्रिका, हरिप्रकाश तथा लालचंद्रिका मैं 'ती' पाठ है, और अमरचंद्रिका, देवकीनंदन की टीका तथा श्रृंगारसरशती में ‘छप्यौ' । 'छत' का अर्थ कृष्ण कवि की टीका से अलक्षित अर्थात् छिपा हुआ होना प्रतीत होता है, पर रसचंद्रिका, हरिप्रकाश तथा खालचंद्रिका में इसका अर्थ था पाया जाता है । बिहारी के सबसे पहिले टीकाकार मानसिंह ने भी इसका अर्थ 'हो', अर्थात् था, ही लिखा है । हमारी समझ में इसका अर्थ अलक्षित हुआ, छिप गया, करना उचित है, जो कि कृष्णकवि लिखित सवैया से प्रतीत होता है । संस्कृत में ‘क्षत' शब्द का अर्थ नष्ट हुआ, बिगड़ा इत्यादि होता है, अर ‘छद्' धातु का अर्थ ढाँपना, छिपाना इत्यादि । इन्हीं दोनों में से किसी से यह शब्द बना प्रतीत होता है । २७५ अंक के दोहे मैं भी ‘छत' तथा 'अछूत' शब्द इसी प्रकार के हैं । बोलचाल मैं अब भी लोग कहते हैं कि तुम्हारे अछत अथव। आछत अमुक कार्य कैसे हुआ'। ऐसे वाक्य मैं ‘अछुत' का अर्थ नष्ट न होने पर, अर्थात् उपस्थित रहते, होता है। तुलसीदासजी ने भी अछूत' का प्रयोग इसी अर्थ में कई स्थान पर किया है, यथा “अस प्रभु हृदय अछत अविकारी ।” “परसु अछत देख जियत बैरी भूप-किसोर ।” इत्यादि । फूलीफाली फूल सी फिरति जु बिमल-बिकास । भोरतरैयाँ होहु ते चलत तोहिँ पिय-पास ॥ ४५८ ॥ ( अवतरण )-मानिनी नायिका से सखी अथवा दूती अभिसार कराने के निमित्त ( अर्थ )-[ तेरी सौतें ] जो विमल ( म्लानरहित, अर्थात् तुझसे बाधा पहुँचने के अटके के म्लान से रहित ) विकास-सहित फूल सी फूलीफाली ( प्रसन्नवदन ) फिरती हैं १. कमलु (२) ।