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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२३३

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१९०
बिहारी-रत्नाकर


१९० विहारी-रखाकर (अफ्नी चटकमटक दियाती घूम रही हैं ), [ वह हम लोगों से सहन नहीं होता, अत: हम लोगों की अभिलाषा है कि ] वे तेरे प्रियतम के पास चलत' ( चलते ही अथवा घलने से ) 'भारतरैयाँ' ( प्रातःकाल की तरैयाँ अर्थात् प्रभाहीन ) हो जायँ ॥ | -- - - अरी, खरी सटपट परी विधु आधैं मग हेरि । संग-लगैं मधुपनु लई भागनु गली अंधेरि ।। ४५९ ॥ सटपट = सटपटी, घबराहट ॥ ( अवतरण )-परकीया कृष्णाभिसारिका प्रेम तथा रूपगर्विता नायिका यह विचार कर नायक से अँधेरी रात को मिलने गई थी कि चंद्रोदय के पूर्व ही घर लौट आऊँगी। पर नायक ने प्रेम-वश उसके लौटने मैं विलंब लगा दिया, जिससे लौटते समय आधे रास्ते ही में चंद्रमा निकल आया, और उसको पड़ी घबराहट हुई कि अब मुझे लोग देख लैंगे, पर उसके शरीर तथा अंगराग की सुगंधि के कारण संग लगे हुए भरों की भीड़ ने गर्ल को आच्छादित कर के अँधेरा कर दिया, जिससे वह साक्षस न हो सकी । यही सृांत वह सखी से कह कर अपने शरीर की सुगंधि तथा नायक के प्रेम का आधिक्य जनाती है ( अर्थ )-अरी [ सखी, उस रात्रि को नायक के पास से लौटते समय, वहाँ उसके प्रेमाधिक्य के कारण विलंब हो जाने से, मुझे ] श्राधे मार्ग में विधु (चंद्रमा ) देख कर खरी ( बड़ी ) सटपट ( घबराहट ) पड़ी। [ पर बड़ी कुशल हुई कि मेरे ] भाग्यों से [ मेरे शरीर की सुगंधि के कारण ] संग लगे हुए मधुपों ( भ्रमरों ) ने गली अँधर ( आँधियारी कर ) ली [ नहीं तो बड़ा अनर्थ होता, लोग मुझे देख लेते ] ॥ चलतु धैरु घर घर, तऊ घरी न घर ठहराइ । समुझि उहाँ घर कौं चल, भूलि उहीँ घर जाइ ॥ ४६० ॥ ( अवतरण )-सखी सखी से नायिका की स्नेह-दशा का वर्णन करती है ( अर्थ )-[यद्यपि ] घर घर [उसका] बैर ( निंदा ) चल रहा है कि वह अमुक पर अनुरक़ हो रही है, और कुलकानि आदि छोड़ बैठी है ], तथापि [वह] घड़ी [ भर भी अपने] घर में नहीं ठहरती, समझ कर (जान बूझ कर) [ भी ] उसी [ नायक के ]घर को चलती है, [ और ] भूल कर ( अनजान में ) [ भर ] उसी [ नायक के ] घर को जाती है [ भावार्थ यह कि वह प्रेम में ऐसी लिप्त हो रही है कि निंदा इत्यादि पर कुछ ध्यान नहीं देती । सुधि में भी वह उसी के घर जाती है, और बेसुध होने पर भी उसके मन तथा पाँव उसे उसी के घर ले जाते हैं ] ॥ १. घटपट ( १ ) । २. ठहराति ( २ ) । ३. जाति ( २ ) ।