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| बिहारी-रत्नाकर दीप-उजेरैं हूँ पतिहिँ हरत बसनु रति-काज ।
रही लपटि छवि की छटनु, नैको छुटी न लाज ।। ४६३ ।। ( अवतरण )–नायिका के शोभाधिक्य का वर्णन सखी सखी से करती है कि उसकी छवि की छटा मैं ऐसी दीप्ति है कि दीपक के उजेरे मैं भी प्रियतम उसको नग्न न देख सका, क्यूँकि उसकी आँखें उस पर न ठहर कर उसकी छवि की छटा में ही फैत्री रह गईं, अतः उस नायिका की जा रह गई
( अ )-दीपक के उजेरे में भी, रति के निमित्त पति के ( पति के द्वारा) वसन ( वस्त्र ) ‘हरत' ( हरने पर ), [ व अपनी ] शोभा की छटा ( किरण ) में [ ऐसी ] लिपट रही कि उसकी लजा ( पति ) किंचिन्मात्र भी नहीं छुटी ( गई ) [ भावार्थ यह कि उसे नग्न कर देने पर भी पति का ध्यान उसकी नग्नता पर नहीं गया, प्रत्युत उसकी शोभा ही में लगा रहा ] ॥
लखि दारत पिय-कर-कटकु बास-छुड़ावन-काज ।
बरुनी-थन गर्दै दृगनु रही गुढ़ौ' करि लाज ॥ ४६४ ॥ कटक= सेना ॥ बासु=( १ ) वसन, वस्त्र । ( २ ) वासस्थान ॥ गुढौ= छिप कर रहने का रह स्थान ॥
( अवतरण )-रत्यारंभ में मध्या नायिका के नयन मैं बजा जो अपना मवास बना कर बस रही है, उसका वर्णन सखी सखी से करती है| ( अर्थ )-पति के कर-रूपी कटक को वसन-रूपी वासस्थान छुड़ाने के निमित्त दौड़ता देख कर घरुणी-रूपी सघन वन में, नयनों में 'गुढ़ौ' (मवास ) कर के ( बना कर ), लाज [ जा ] रही ( बसी )[ अर्थात् जब नायक ने वस्त्र हरना चाहा, तो नायिका की आँखों में लज्जा भर आई ] ॥
सकुचि सुरंत-आरंभ हाँ बिछुरी लाज लजाइ ।।
सुरकि ढार दुरि ढिग भई ढीठ ढिठाई आइ ॥ ४३५ ॥ लजाइ–यहाँ 'लजाइ' का अर्थ लजाई हुई अथवा लजाती हुई कर के उसको लाज का विशेषण मानना चाहिए ॥ ढरकि=ढरकती हुई अर्थात् धीरे से । ढार=ढाल से, सुंदर चालढाल से ॥ दुरि= प्रसन्न हो कर ॥ दिग= समीप ॥ | ( अवतरण )-प्रौदा नायिका के सुरत का वर्णन सखी सखी से करती है
( अर्थ )-सुरत के आरंभ ही में [ उसका ] लजीली लज्जा [ तो ] संकुचित हो कर बिछड़ गई ( हट गई ), [ और ] सुंदर चालढाल से दुर कर (प्रसन्नतापूर्वक ) धीरे से डीठ ढिठाई आ कर [ उसके] समीप [ उपस्थित ] हुई
-- ----- १. बसन ( २, ३, ५)। २. गूढ़ ( २ ) । ३. सुरति ( ५ )। ४. ढीठ (१, २, ३, ४)।
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बिहारी-रत्नाकर