सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२४६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२०३
बिहारी-रत्नाकर

( अर्थ )-[ उसके चलते समय ] मार्ग में एक एक पग प्रागे [उसके] चरणों की अरुण युति (लाल आभा) के झूल कर ( ऊपर से नीचे की ओर तिरछे बल में पा कर) पड़ते हुए ( पड़ते समय, पड़ने से ) ठौर ठौर पर दुपहरिया के फूल से फूल उठे देखे जाते हैं ( जान पड़ते हैं, अर्थात् ऐसा जान पड़ता है मानो ठौर ठौर पर दुपहरिया के फूल फूल उठे हैं )॥

नीच हियैँ हुलसे रहैँ गहे गेँद के पोत।
ज्यौँ ज्योँ माथैँ मारियत, त्यौँ त्यौँ ऊँचे होत॥४९१॥

पोत (प्रकृति)=स्वभाव॥

(अवतरण)-कवि की उक्ति है-

(अर्थ)-नीच [मनुष्य] गेंद के पोत (स्वभाव) धारण किए हुए [सदा निरादृत होने पर भी] हृदय में हुलसे (फूले) रहते हैँ। ज्योँ ज्याोँ [वे] माथे पर मारे जाते हैं (निरादृत होते हैं, अपने सिर पर चोट खाते हैँ), त्योँ त्योँ ऊँचे होते हैँ (अपने को श्रेष्ठ मानते हैँ, ऊपर को उछलते हैँ)॥

ज्यौँ ज्यौँ बदति विभावरी, त्यौँ त्यौँ बढ़त अनंत । अोक भोक सबलोक-सुख, कोक-सोक हेमंत ॥ ४६२॥ ( अवतरण )-हेमंत ऋतु का वर्णन । कवि की उक्ति ( अर्थ )- हेमंत ऋतु में ज्यों ज्यों रात्रि बढ़ती है, त्या त्याँ घर घर में सब लोगों के मुख [ और ] कोक (चकई-चकवा) के दुःख अनंत ( बहुत ) बढ़ते हैं । रयौ मोहु, मिलनौ रयौ, यौँ कहि गहँ मरोर । उत दै सखिहि उराहनी इत चितई मो ओर ॥ ४६३ ॥ (अवतरण )-कोई परकीया नायिका गुरुजनों के समाज में थी। इतने ही मैं उसका उपपति, जो बहुत दिनों से उससे मिला नहीं था, वहाँ आ गया, और संयोग से उसकी कोई सखी भी उसी समय वहाँ आई । नायिका ने बड़ी चातरी से मोहहीन होने तथा बहुत दिनों से न मिलने का उराहना तो सखी को दिया, पर उराहना देते समय नायक की ओर रुष्टता से देख कर उस पर यह विदित कर दिया कि वह उराहना वास्तव में उसे दिया गया है । नायिका की उसी चातुरी तथा मनोमोहिनी रोष-चेष्टा का वर्णन नायक अपने पीठमर्द सखा से करता है, जिसमें वह उसके रोष-निवारण का उद्योग करे (अर्थ)-[हे सखी, जो तू मुझ पर बड़ा मोह जनाया करती थी, सो तेरा सब] मोह रहा ( समाप्त हो गया ), [ और ] मिलना जुलना [ भी] रहा ( बंद हो गया), इस १. रहत (१, २) । २. को ( २ ) । ३. जेते ( ३, ४, ५)। ४. तेते ३, ४) । ५. ऊँचौ ( २ )। ६. मिलबो (५)। ७. सखी ( २, ३, ५) ।