पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२०५
बिहारी-रत्नाकर

________________

३५ विहारी-रत्नाकर मिलि विहरत, विरत मरत, दंपति अति रति-लीन। नूतन बिधि हेमंत सर्वं जगत जुफा कीन ॥ ४९७ ॥ ( अवतरण )-मानिनी नायिका से सखी हेमंत ऋतु का प्रभाव वर्णन कर के उस का मान छुड़ाया बहती है | ( अर्थ )-[ देख, इस ऋतु में ] दंपति ( नायक नायिका ) अति रति-लीन ( प्रीति में समाए हुए ) [ हो ] मिले कर ( साथ साथ) विहार करते हैं, [ और] बिछुड़ते [ही ] मरते हैं ( मरने लगते हैं, अर्थात् अत्यंत कष्ट पाते हैं ) । [ इस ] हेमंत-रूपी नए ब्रह्मा ने सब जगत् को जुराफ़ा बना रखा है ॥ ऊँट की आकृति का एक पशु जुराफ़र अफरीका मैं होता है। इसके विषय में प्रसिद्ध यह है कि यह अपने जोड़े के साथ ही रहता है, और वियोग होने पर शीघ्र हर मर जाता है। प्राचीन टीकाकारों ने जुराफा का अर्थ पक्षी विशेष लिखा है ॥ पल सोहैं पगि पीक-सँग छल सोहैं सब बैन । बल-सैहिँ कत कीजियत ए अलॉहैं नैन । ४९८ ॥ ( अवतरण )-प्रौढ़ा धरा नायिका की उक्ति नायक से ( अर्थ )-[ तुम्हारी ] पलकें [ पान की ] पीक के रंग से पग कर (लिप्त हो कर ) सोहती हैं, [ तथा तुम्हारे ] सब ववन में छल शेाभित हैं, [ जिनसे तुम्हारे रात्रि के सत्र कमें स्पष्ट विदित हो रहे हैं । अब उनके छिराने के निमित ] ये अलरूप-भरे स ( सामना करने में कैंपते हुए से) नयन [व्यर्थ ही] ‘बल-सौं हैं' (बल-पूर्वक सामने) क्यों किए जाते हैं। कत लपटइयतु मो गरें; सो न, जु ही निसि सैन । जिहिँ चंपक-बरनी किए गुल्लाला-हँग नैन ॥ ४९९ ॥ ( अवतरण )-खंडिता नायिका की उकि नायक से - | ( अर्थ )-[ आपके द्वारा ] मेरे गले में क्यों लिपटा जाता है। [ में ] वह नहीं हैं, जो रात को [ आपकी ] शय्या पर थी, [ तथा ] जिस चंपक-वरणी ने [ अापको रात भर जगा कर आपके ] नयन गुलाला के रंग के कर दिए हैं ॥ इस दोहे में मुख्यार्थ के साथ साथ कई फूल के नाम भी आए हैं-लपटइया ( इश्करेचा ), मोगरा ( एक प्रकार का बेला ), सोनजुही, निशिशयन (कमल), चंपक, बरनी ( वय ), गुलाला, नैन ( पंच-नैना )। इनसे अर्थ मैं यद्यपि कोई उपकार नहीं होता, तथापि कवि की चातुरी प्रकट होती है। इस प्रकार नाम का संग्रह कर देना एक प्रकार का मुद्रालंकार कहलाता है ।। १. रस ( २, ४) । २. रितु (४) । ३. जग्वै ( २ ), जुग्यै (४) । ४. बलि ( ३, ५ ) । ५. कित ( ५ )।