सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२४९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२०६
बिहारी-रत्नाकर


२०६ बिहारी-रत्नाकर नैंक उतै उठि बैठियै, कहा रहे गहि गेछु । छुटी जाति नह-दी छिनकु महदी सूकने देहु ॥ ५०० ॥ गेहु ( गृह )= घर ।। नह-दी= नखों में दी हुई अर्थात् लगाई गई ।। अवतरण )--स्वाधीनपतिका नायिका की सखो का वचन नायक से । नायिका के नख में मैंहदी लगाई गई है। नायक वहाँ उपस्थित है । सखी कहती है कि तुम्हारे सामने रहने के कारण नायिका को स्वेद सात्त्विक हो रहा है, जिससे उसकी मैंहदी सूखने नहीं पाती । अतः तुम क्षण मात्र सामन से टल जाओ, तो मैंहदी सूख जाय । सखी का अभिप्राय, नायिका का साविक प्रकट कर के, नायक के हृदय में प्रीति बढ़ाना है ( अर्थ )-नैंक (थोड़े समय के लिए ) [यहाँ से उठ कर उधर (आड़ में) बैठ जाइए, [ भला आप इस प्रकार ] क्यों घर को पकड़े हुए हैं ( घरघुसने बने हुए हैं ) । [ देखिए, आपके सामने उपस्थित रहने से, स्वेद साविक के कारण, इसकी ] नखों में दी हुई ( लगाई गई ) [ टटकी ] मेंहदी छुटी जाती है, [ सो उसको ] क्षण मात्र सूखने दीजिए ।


लटुवा ल प्रभु-कर-गहैं निगुनी गुन लपटाई । वहे गुनी-कर हैं छुटैं' निगुनीयै है जर ।। ५०१ ॥ निगुनी ( निर्गुणी )= ( १ ) गुण ( शता, कलाकौशल इत्यादि ) से विहीन मनुष्य । ( २ ) डॉग से रहित लट् ॥ गुन ( गुण ) = ( १ ) कलाकोशलादि गुण । ( २ ) लेट किराने की डोरी ॥ गुनी " ( गुणी )=(१) सर्वगुणसंपन्न ईश्वर । ( २ ) लढू फिराने की डोरी को धारण करने वाला ॥ ( अवतरण )-कवि की उक्ति है कि जिस पर ईश्वर की कृपा होती है, वह गुणहीन होने पर भी गुणी हो जाता है, और फिर वही गुणी, प्रभु की कृपा से वंचित होने पर, गुणहीन रह जाता है । इसी बात को कवि ईश्वर को लट्ट फिराने वाले की तथा मनुष्य को लट्ट की उपमा दे कर करता है| ( अर्थ )- लट्ट की भाँति प्रभु ( १. ईश्वर । २. लट्ट के स्वामी ) के हाथ में पकवृने ( १. सहायता करने । २. हाथ में लेने ) पर निर्गुणी ( १. गुणहीन मनुष्य । २. विना डोरी का लट्ट) गुण ( १. विद्वत्तादि । २. डोरी ) में लिपट जाता है ( १. अनेक प्रकार के शुभ गुणों से आच्छादित हो जाता है । २. डोरी में लिपट जाता है )। [ फिर ] वही गुणी ( १. ईश्वर । २. डोरी वाले) के हाथ से छूटने पर ( संसार में ] निर्गुणी ही ( १. शुभगुणहीन ही । २. डोरी से रहित ही ) हो जाता है ( १. माना जाता है। २. रह जाता है ) ॥ है हिय रहति हेई छई, नई जुगति जगे जोइ । दीठिहिँ दीठि लगैं, दई, देह दूरी होइ ।। ५०२ ॥ १. लागन ( २, ४) । २. उहे ( ३, ५ ) । ३. कुटो ( ४, ५) । ४. दई ( २ ) । ५. यह ( २ ) ६. लगें ( ३ ), लगा ( ४ ), लगे ( ५ ) । ७. बड़ी ( २ ) ।