२१२ विशारी-खाकर तुम जु दई तिहिँ मात्र, तिहिं परसत गर्दै गईं। याँ बढी छवि बाल, लाल परसि पुलकित मनौ ॥" अमरचंद्रिका का भावार्थ यह हुआ। -'तुम्हारी दी हुई मौलसिरी की माला को गोरे गले में परिनने से उसकी ऐसी छवि हुई मानो वह तुम्ही को स्पर्श कर के पुलति हुई है। यह भाव अच्छा है, पर इस अर्थ में 'पहिरत' के साथ 'बीजसिरी की माल' का अन्वय बड़ी क्लिष्टता से करना पड़ता है। हरिप्रकाश तथा बिहारी बोधिनी टीका में भी अमरचंद्रिका का अनुसरण किया गया है ॥ रसचंद्रिका में यह अर्थ लिखा है--‘नाइक ने जर हार भेजा था नाइका के सो सखी नाइक साँ कही है कि है लाल, नाटक के गरे गरे की शोभा स मालसिरी के फूल के जो कटे थे, सो ऐसे लगने लगे कि काँटे नहीं हैं, मानो माला भी पुलकित भई है। यह भावार्थ स्पष्ट त अवश्य है, पर कुछ विशेष संतोषप्रद नहीं है । कृष्ण कवि की टीका तथा लाल चंद्रिका में भी यही भावार्थ माना गया है ॥ देवकीनंदन की टका में अमर चंद्रिका तथा रसचंद्रिका, दोनों के अथो का संग्रह है। प्रभुदयाल पाँर्जी ने विलक्षण ही अर्थ किया है -'गोरे गले में पहनते ही जाल युति याँ देई, म ने स्पर्श कर के मालसिरी की माला पुलकित भई ॥ | हमारी समझ में इस दोहे का भावार्थ ४७०-संख्यक दोहे के अनुसार मानना चाहिए । भस प्रकार उस दोह में नायिका के शरीर ही का पुलकित हो कर कदंब की माला हो जाना कहा गया है, उसी प्रकार इस दोहे मैं नायिका के शरीर का पुलकित हो कर मौलसिरी की माल' हो जाना समझना चाहिए । ( अवतरण )-नायक ने नायिका के निमित्त मानसिरी की माल उसकी अंतरंगिनी सखी के हाथ भेजः थी । सखी ने जब वह मला नायिका को पहनाई, तो, इस विचार से कि वह मःला नायक की भेजी हुई एवं उसके द्वारा स्पर्श की हुई है, उसको पुलक सात्विक हुआ । यह वृत्तांत सखी नायक से कह कर यह व्यंजित करती है कि आपके हाथ की स्पर्श की हुई माला के स्पर्श से उसका सवंग पुलकित हो जाता है । सखी का अभिप्राय नायिका का प्रेमाधिक्य व्यंजित कर के नायक की प्रीति बढ़ाना है ( अ )--हे लाल ! [ तुम्हारी भेजी हुई मौलसिरी की माला के ] गेरे गले में पहनते ही [ पुलक सात्विक के कारण उस नायिका पर ] ऐसी यति ( शोभा ) दौड़ पड़ी ( गले से आरंभ हो कर अति शीघ्र सवांग में छा गई ), मानो [ उसको ] परस कर पुलकी हुई [ वह नायिका स्वयं ] मौलसिरी की माला हो गई ॥ | इस अर्थ में प्रथम मौलसिरी की माला को अध्याहार करना पड़ता है। पर वह नायिका स्वयं मौलसिरी की माला हो गई', इस खंडवाक्य के बल से यह अध्याहार हो जाता है। रस-भिजए दोऊ दहुनु, तउ टिकि रहे, टरौं न । छवि सौं छिरकत प्रेम-इँगु भरि पिचकारी नैन । ५१४ ॥ १. ती ( २, ४) ।