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बिहारी-रत्नाकर

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विदारी-रत्नाकर २१३ ( अवतरण )–नायक नायिका पारस्परिक शोभा देखते तथा नेत्रों के भाव से अपना अपना प्रेम सचित करते हैं। इस व्यवस्था का रूपक होली के खेल से कर के सखी सखा से कहती है | { अर्थ )-दोन ( नायक नायिका ) के द्वारा दोनों ( नायिका नायक ) रस ( अनुराग-रूपी रग ) से भिगो दिए गए हैं, [ और ऐसी दशा में चाहिए तो यह था कि सामने से हट जाते, क्योंकि होली के खेल में जो सराबोर हो जाता है, वह भाग कर हट जाता है ], तो भी [ ये ] नयन-रूपी पिचकारियाँ भर कर प्रेम-रूपी रंग ! बड़ी ] सुंदरता से छिड़कते हुए ( अपना अपना प्रेम बड़ी सुंदर रीति से सूचित कर के दूसरे को प्रेम में सराबोर करते हुए ) टिक रहे हैं ( आमने सामने डटे हुए हैं ), टलते नहीं ! कारे-बरन डरावने कत आवत इहिँ गेह ।। कै वा लखी, सखी, लखें लगै थरथरी देह ।। ५१५ ॥ कै वा=कै बार ॥ लखी—'लख ( लक्ष )' धातु का प्रयोग बिहारी ने अकर्मक तथा समक, दान” रूप में किया है । इस दोहे में 'लखी' क्रिया अकर्मक रूप से प्रयुक्त हुई है ।। ( अवतरण )–नायिका बहिरंगिनी सखियाँ में बैठी है । इतने ही मैं श्रीकृष्णचंद्र किसी व्याज से उसके घर आए हैं। उनको देख कर नायिका को कंप सात्विक हुआ है । अनुराग छिपाने के निमित्त वह सखौ से उस कंप का भय के कारण होना कहती है ( अर्थ )-यह काले वर्ण वाले डरावने [ मनुष्य ] इस घर में [ बार बार ] क्यों अाया करते हैं । हे सखी, [ में ] कितने [ ही ] वार देख चुकी हूँ (अनुभव कर चुकी हूँ ) [ कि इनके ] देखने से [ मेरी ] देह में [ भय के कारण ] थरथरी ( कंप ) लगती है। ( होने लगती है ) ॥ कर के मीड़े कुसुम लौं गई विरह कुम्हिलाई । सदा-समीपनि सखिनु हुँ नीठि पिछानी जाइ ।। ५१६ ।।। मड़ ( मुदित ) =हुए, मसले हुए । ( अवतरण )-सखा नायक से नायिका की व्याधि उशा का वर्णन कर के उस उसके इस अने पर उद्यत किया चाहती है | ( अर्थ )-हाथ से मले हुए फूल की भाँति [ २ ] विरह से [ ऐसी ] कुन्हिला गई है [ ] सदा समीप रहने वाली सखियों के द्वारा भी बड़ी कठिनता से पहिचान जाती है। चितवत, जितबत हित हियँ, कियँ तिरीछ नैन । भी तम दोऊ कॅपैं, क्यौं हूँ जप निबरें न ॥ ५१७ ॥ १. अरहर ( २ )।