पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२५७

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बिहारी-रत्नाकर


बिहारी-रखाकर जितवत = जताते हुए । निवरौं न = निवृत्त नहीं होते, समाप्त नहीं होते ॥ ( अवतरण )--नायक नायिका, जाड़े के दिन मैं किसी जलाशय में स्नान कर के, जप करने के व्याज से पानी ही मैं खड़े, तिरछी दृष्टि से परस्पर अपना अपना प्रेम सूचित कर रहे हैं। अतः विशेष विलंब हो जाने पर भी उनके जप समाप्त नहीं होते । सखी-वचन सखी से ( अर्थ )-[ एक दूसरे के ] हृदय में [ अपना ] प्रेम जताते हुए, तिरछे नयन किए ( औरों की आँखें बचाए ) [ परस्पर ] देखते ( अवलोकन करते ) हुए दोनों [ स्नान कर के ] भीगे तन से [ पानी में खड़े ] काँप रहे हैं, [ और ] किसी प्रकार ( बहुत विलंब होने पर भी ) [ उनके ] जप समाप्त नहीं होते ।। कियौ जु, चिवुक उठाइ कै, कंपित कर भरतार । टेढ़ीयै टेढ़ी फिरति टेर्दै तिलक लिलार ।। ५१८ ।। ( अवतरण ) --नायक न एक हाथ से नायिका की ठोढी उभा कर दूसरे हाथ से उसके ललाट पर तिलक लगाया है। नायक के केंप सात्विक के कारण तिलक टेढ़ा हो गया है । नायिका नायक का प्रेम उसके साविक से निश्चित कर के उनी फिरती है। इसी प्रेम-गवंता नायिका का वृत्तांत सखी सखी से कहती है ( अर्थ ):-चिंबुक ( ठेढ़ ) उठ कर, [ साविक के कारण ] काँपते हुए हाथ से, जो [ तिलक ] भर्तार ने [ उलको ] किया ( लगाया ), ललाट पर [ उस ] टेढ़े ( प्रियतम के प्रेम-साविक से कंप होने के सूत्रक ) तिलक [ के गर्व ] से [ वह ] टेढ़ी ही टेढ़ी ( पेठेती, इतराती ) फिरती है ॥ भौ यह ऐसाई समौ, जहाँ सुखद दुखु देत । चैत-चाँद व चाँदनी डारति किए अचेत ॥ ५१९ ॥ ( अवतरण )-प्रोपितपतिका नायिका का वचन सखी से ( अर्थ )-[ प्रियतम के विरह में ] यह समय ऐसा ही हो गया है [ कि ] जहाँ ( जिसमें ) सुखद [ पदार्थ ] दुःख देते हैं । [ देख, यह ] चैत्र [ मास ] के चंद्रमा की चाँदनी [ जो संयोग-समय में सुखद थी, इस समय मुझे ] अवेत ( विरह-व्यथा का उद्दीपन कर के दुःखाधिक्य के कारण चेतनाशून्य ) किए डालती है ॥ कत कहियत दुख देन कौं रचि रचि बचन अलीक। सबै कहाउ रणौ लखें, लाल, महावर-लीक ।। ५२० ॥ अलीक= रीति-रहित, मनमाने, मिथ्या ॥ कहाउ = कहना सुनना, वक्तव्य ॥ लीक= लकीर ।। १. जहँ सुख तहँ दुख (४) ।