२१६ विहारी-रत्नाकर का प्रयोग हैं के स्थान पर अवधी भाषा में प्रचलित है । श्रीगोस्वामी तुलस.दासजी ने भी होहिं का प्रयोग हैं के अर्थ में बहुतायत से किया है। इस प्रयोग के शुद्ध त्रजभाषा में प्रचलित होने में संदेह है। ५४९-संख्यक दोहे में भी ‘होहिं का ऐसा ही प्रयोग है ।। | ( अवतरण )-लक्षित नायिका की आँखों की विलक्षण झलक से सखा उसके हृदय का स्नेह लक्षित कर के कहती है ( अर्थ )-ये [ तेरे ] हृदय के हित ( प्रेम ) के चुराल नयन नित के ( नित्यप्रति जैसे रहते थे, वैसे) नहीं हैं, आज नए ठाटबाट से छाए हुए कुछ और ही [ से ] हो गए हैं [ जिससे यह बात स्पष्ट लक्षित होती है कि तेरा हृदय किसी पर अनुरक्र हुआ है ] ॥ छुटै न लाज न लालचौ प्यौ लाख नैहर गई । सटपटात लोचन खरे भरे संकोच, सनेह ॥ ५२४ ॥ सटपटात= संशय में पड़े हैं कि सामने देखें अथवा नीचे हुए हैं, अतः ग्रति शीघ्रता से सामने तथा नीचे होते हैं । | ( अवतरण )--नायिका अपने नैहर में है। नायक भी वहाँ आया है। नायिका के नेत्र * नायक के देखने की अभिलाषा तथा माता, भगिनी इत्यादि का संकोच, दोन द्वंद्व मचाए हुए हैं। अभिल। या तो आँखाँ को नायक की ओर प्रेरित करती है, और संकोच उन्हें नीची किए देता है। अतः अाँखें कभी सामने, कभी नीची होती हैं। यही व्यवस्था सखी सखी से कहती है ( अर्थ )-प्रियतम को नैहर के घर में देख कर [ नायिका के नेत्रों से ] न | तो ? लजा छूटती है, [ और ] न लालच ही । [ अतः उसके ] नेत्र संकोच [ तथा ] स्नेह से भरे हुए अत्यंत सटपटाते है ॥ --- --- ह्याँ हैं हाँ, हाँ हैं इहाँ, नेक' धनंति न धीर । निसि दिन डेढ़ी सी किरति झाड़ी गाढ़ा पीर ।। ५२५ ।। डाढ़ी ( दग्धा )= दाही, जलाई हुई । 'डाढी' शब्द का प्रयाग जली हुई अथका जलाई हुई के अर्थ में काव्य-भाषा में प्रचलित है । अवध प्रांत में ‘डादा शब्द अग्नि के अर्थ में, बोलचाल में भा, श्राता है । स्त्रिया कोसने में भी कहती हैं कि 'तेरे मुंह में डाढ़ा लागे । | ( अवतरण )—पूर्वानुरागिनी नायिका की उद्वेग दशा सखी सखा से, अथवा नायक से, कहती है ( अर्थ )-[वह ] किंचिन्मात्र भी धैर्य न धरती हुई ( अर्थात् परम विकल नायिका ) बद्दी हुई गढ़ी पीड़ा से दग्ध ली रात दिन यहाँ से वहाँ [ और ] वहाँ से यहाँ फिर करती है॥ १. बुराई ( ३, ५ ) । २. घरत ( ५ ) । ३. दादी ( ५ ) ।