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बिहारी-रत्नाकर

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विहारी-राकर २२१ सखो नायक से, ताना देती हुई, कहती है कि आप तो उसका प्रेम छिपाए हुए थे, पर अब बताइए कि वह इस अनुरागमय जवृता-भाव से किसको देख रही है| ( अर्थ )-[ देखो, वह तुम्हें देख कर ] अचल सी ( जड़ पदार्थ सी ) हो रही है, मानो चित्र में लिखी हुई [ मूर्ति ] है।[ यदि वह तुम पर अनुरक्त नहीं है, जैसा कि तुम कहते हो, तो ] कहो [ कि ] लज्जा [ तथा ] लोक का डर तजे हुए [ इस भाँति वह ] किसको देख रही है ॥ पता न चलें, जाकि सी रही, थकि सी रही उसास । अवहीं तनु रितयौ; कहौ, मनु पठ्यौ किहिँ पास ॥ ५३४ ॥ १ अवतरण )--परकीया नायिका ने अपना उपपति-विषयक प्रेम सखी से छिपा रखा था। पर अब, नायक के सामने आने पर, सखी वह गुप्त प्रेम बाक्षित कर के परिहास-पूर्वक कहती है | ( अर्थ )-[ इस नायक को देख कर तेरी ] पलकें चलती नहीं (तेरी टकटकी बँध गई है ), [१] स्तंभित सी हो रही है, [ तथा तेरी ] उसास थक सी रही है ( तेरी साँस बहुत मंद मंद चलने लगी है, अर्थात् तु साँस रोक कर उसको देख रही है ) । [ अभी तक तो तेरी ऐसी दशा नहीं थी, पर ] अभी ( इस नायक को देखते ही ) [ तूने अपना ] शरीर [ मन से ] खाली कर दिया । [ फिर यदि तु इस पर अनुरक्त जहाँ है, तो ] बतला, मन किसके पास भेजा है। मैं लै दयौ, लयौ सु, कर छुवत छिनकि गौ नीरु । लाल, तिहरी अरगजा उर है लग्यो अबीरु ॥ ५३५ ॥ | अवतरण )-पूर्वानुराग मैं नायक ने नायिका के पास प्रेमपहार-रूप अरगजा भेजा था। उस से उद्दीपन होने के कारण नायिका के शरीर में अत्यंत ताप उत्पन्न हुआ । उसी ताप का वर्णन सस्त्र नायक से, प्रेम बढ़ाने के निमित्त अत्युक्ति मैं, करती है | ( अर्थ )-मैंने [ तुमसे ] ले कर [ उसको ] दिया, [ और ] उसने लिया, [ पर वह अरगजा अरगजा-रूप से उसके उर तक न पहुँचने पाया । उसके ] हाथ से छूते [ही तोपाधिक्य के कारण उसका] नीर ‘छिनकि गौ' (छनछना कर जल गया)।[अतः ] है लाल, तुम्हारा [ भेजा हुआ ] अरगजा [उसके] उर पर अबीर हो कर लगा ॥ चलो, चलें छुटि जाईंगौ हङ राव सँकोच । खरे बढ़ाए हे, ति अब आए लोचन लोच ॥ ५३६ ॥ ( अवतरण )-जहांतरिता नायिका की सखी का वचन नाव से-- ( अर्थ )-[ अब आप फिर ] चलिए। [अब आपके] चलने पर आपके संकोच १ कहूँ ( ३, ५) । २. तुम्हारी ( ३, ५) । ३. जाहिगौ ( २ ) ।