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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२७०

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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर २७ ( अर्थ )-तू भी कहती है ( मान करने के लिए उपदेश देती है ), [ और ] मैं स्वयं भी सभी सयानपन ( मान करने की उपयोगिता) समझती हैं।[ पर मैं क्या करूँ,] मोहन ( मोह लेने वाले श्रीकृष्णचंद्र ) को देख कर जे [ मेरा ] मन [ मुझमें ] रहे, तो [ मैं उस ] मन मैं मान रक्खू ( धारण करू)[ मोहन के देखते ही जब मेरा मन चट उनके पास चला जाता है, और मेरे वश में रहता ही नहीं, तो भला फिर मैं उसमें मान कैसे रखें ] ॥ धुरवा होहिँ न, अलि, उटै धुवाँ धरनि-चहुँकोद । जारत आवत जगत क पावस-प्रथमपयोद ॥ ५४९ ।। ( अवतरण )-प्रोपितपतिका नायिका को नए वादन अग्नि की भाँति ताप देते हैं। अतः वह उनको देख कर सखी से कहता ( अर्थ ) हे अलि, [ये जे पृथ्वी के छेर से उठते हुए दिखाई देते हैं, वे ] धुरवा नहीं हैं । पावस ऋतु के पहिले बादल जगत् के जलाते हुए चले आ रहे हैं; [ यह उसी का ] धुआँ धरती के चारों ओर उठ रहा है । नख-रुचि-चुरेनु डारि कै, उँगि, लगाइ निज साध । रह्यो राखि हठि ले गए हाथी मनु हाथ ।। ५५० ॥ रुचि-चूरनु ठग लोग किसी तांत्रिक क्रिया के द्वारा एक प्रकार की मोहिनी विभूति बनाते हैं। यह विभूति जब किसी पर डाल दी जाती है, तो उसकी बुद्धि स्थगित हो जाती है, और वह विभूति डालने वाले पर ऐसा मोहित हो जाता है कि उसके साथ लग लेता है कोई लाख समझाने और रोके, पर रुकता नहीं । जब कोई ठग किसी धनी का धन लेना चाहता है, तो उस पर यह बुकनी बुरका देता है। बस, फिर वह उसके साथ लेग कर चला जाता है। किसी निर्जन स्थान में ले जा कर वह ठग उसका सर्वस्व अपहरण कर लेता है । बहुधा यह बुकनी मनुष्या अथवा अन्य जीवों के हाड़ अथवा नखों की बनाई जाती है । इमी से कवि ने ‘नखरुचि-चूरनु' कहा है ।। रुचि-यह शब्द यहाँ श्लिष्ट है। इसका एक अर्थ शोभा है, जिसके कारण यह 'नख' से अन्वित होता है, और दूसरा अर्थ चाह हैं, जिससे यह 'चूरनु' से अन्वित होता है । | ( अवतरण )-नायक नायिका के हाथ तथा उनके नख पर माहित हो कर अपनी दशा उसकी सखी से कहता है ( अर्थ )- उसके ] हाथ-रूपी ठग] नख-शोभा-रूपी रुचिचूर्ण (महिनी विभूति ) डाल कर, ठग कर (बुद्धि के स्थगित कर के ), [ और ] अपने साथ लगा कर [ मेरे ] रक्षित किए जाते ( जाने से रोके जाते ) हुए मन को हठात् हाथों हाथ ( देखते ही देखते ) ले गए ॥ .. १. चख (४) । २. चेटक (४) । ३. ठग ( २ ) । ४. गयी ( ३, ५ ) ।