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बिहारी-रत्नाकर चलत देत आभारु सुनि उहीँ परोसिंहिँ नाह ।
लसी तमासे की दृगनु हाँसी आँसुनु माँह ।। ५५१ ।। | ( अवतरण )- इस दोहे की नायिका अपने किसी परोसी से अनुरक़ है। इस समय उसका पति विदेश जा रहा है, जिससे वह अपनी आँखों में आँसू भरे हुए है। इतने ही मैं उसने सुना कि उसका पति उसी परोसी को घर सँभालने का भार दे रहा है। यह सुनते ही, हर्ष के कारण, उसको आँसू-भरी आँखों में हँसी आ गई। यही वृत्तांत कोई सखी किसी अन्य सखी से कहती है
( अर्थ )-[ विदेश ] चलते समय [ अपने ] नाथ ( पति ) को उसी परोसी को [ जिससे यह नायिका अनुरक्र है, अपने न रहने पर घरद्वार सँभालने का ] आभार ( बोझा ) देते हुए सुन कर [ इसकी ] आँखों में आँसुओं के बीच तमाशे की ( द्रष्टव्य, विलक्षण ) इंसी लसी ( शोभित हुई, उमड़ आई ) ॥
| हँसी का ‘तमासे की' इस निमित्त कहा है कि वह श्रायु के बीच में एकाएकी आ गई है, जो कि एक विलक्षण बात है ॥
सुरति न ताल ने तान की, उठ्यौ न सुरु ठहराइ ।
ऐरी, राजु बिगारि गौ बैरी बोलु सुनाइ ।। ५५२ ।। ( अवतरण }-नायिका कोई राग गाना चाहती थी, और उसका स्वर उटा कर गुनगुना रही थी । इतने । मैं उसको नायक का शब्द सुनाई पड़ गया, जिससे उसको स्वरभंग साविक हो गया, और गाना बिगड़ गया । किसी अंतरंगिनी सखी के यह कहने पर कि तु तो बहुत अच्छा गाया करती थी, आज क्या है, जो बेसूरी हो रही है, वह कहती है
( अर्थ )-[ मैं क्या करूँ, मुझे कुछ ] सुधि न ताल की [ रह गई हैं ], न तान की, [ और ] न उठा हुआ ( आरंभ किया हुआ ) स्वर ठहरता है ( जमता है, स्थिर रहता है)। हे सखी, [ वह मेरा ] वैरी ( प्रियतम, परंतु सखियों के बीच में मुझे, अच्छा न गा सकने के कारण, संकुचित करने वाला ) [ अपना ] बोल सुना कर [ और स्वरभंग सात्त्विक उपजा कर मेरा ] राग ( गाना ) बिगड़ गया।
प्रर्जस्यौ अगि वियोग की, बह्यौ विलोचन-नीर ।
आठौं जाम हियौ रहै उड़यौ उसास-समीर ॥ ५५३ ॥ ( अबतरण )-नायिका की सखी अथवा दूती नायक से उसका विरह निवेदन करती है
( अर्थ )-वियोगाग्नि से जला हुआ [ तथा ] आँखों के नीर ( आँसू ) से बहा हुआ [ उसका ] हृदय-रूपी पतंग ] आठौं याम उसास-रुपी समीर (वायु) से उड़ा रहता है( स्थिर नहीं रहता, स्वस्थ नहीं रहता ) ॥
१. परीसिनि ( २ ) । २. रु ( ४ ) । ३. ऐरी ( ३, ५ ) । ४. पजरी ( २ )।
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बिहारी-रत्नाकर