पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२३२
बिहारी-रत्नाकर


२३२ विहारी-रत्नाकर पर ‘रुचत' रखा गया है । तालचंद्रिका में ‘जो' के स्थान पर 'सो' मिलता है। प्रभुदयालु पाँडेजी ने ‘जो धन रचित न कोइ' के स्थान पर ‘जो धनरुचितन कोइ' लिखा है । श्रीयुत मिश्रबंधु महाशयाँ ने भी पाँडेजी ही का पाठ शुद्ध भाना है, पर वनरुचितन' के शब्द का पृथक् पृथक् लिखा है । बजा भगवानदीनजी ने भी पाँडे जी ही का पाठ ग्रहण किया है, पर पदच्छेद इस प्रकार रक्खा है-नो घनरुचि तन कोय ॥ | हमारी चार प्राचीन पुस्तक मैं वही पाठ है, जो इस संस्करण में रक ब्रा गया है, और पहिले अंक की पुस्तक में यह दोहा है ही नहीं ॥ 'जे धन रुचित न कोइ', इस खंड-वाक्य मैं ‘धन' शब्द ‘धन्य' का अरभ्रंश है। इसका शब्दार्थ यहाँ धन्यभागी, और लक्ष्यार्थ महा अभागी, है । जो धन रुचित न कोइ' का अर्थ यह होता हैजो किसी ही महा अभागी को रुचित ( रुघा हुआ ) नहीं है, अर्थात् जो किसी ही अभागी को नहीं रुचता । अथवा इस खंड-वाक्य का इस प्रकार अर्थ किया जाय-जो-धन-रुचित न ( जिस धन से नहीं रुचा हु ) कोइ' ( कोई ही ) है ॥ इन दोन प्रकारों में से किसी भी प्रकार उङ्ग खंड-वाक्य का अर्थ कर लेने पर दोहे में कोई उलझन नहीं रह जाती, और उसका अर्थ स्पष्ट हो जाता है ॥ | ( अवतरण )-कोई भङ्ग व्रजवासी किसी संसार में लिप्त तथा सुचित्तता प्राप्त न होने पर झीखते हुए अन्य ब्रजवासी से कहता है ( अर्थ )--व्रजवासियों का [ जो ] उचित ( परमोपार्जनीय ) धन है [ अर्थात् श्रीकृष्णचंद्र शथवा उनकी भक्ति ] 'जो धन रुचित न कोइ' ( जे किसी ही धन्यभाग, अर्थात् महा अभागी, को नहीं रुचता ), [ अथवा ] ‘जो-धन-रुचत न कोइ' (जिस धन से न रुचा हुआ काई ही हैं), सो [ तेरे ] चित्त में नहीं आया, । तो फिर ] कहो, ‘सुचित (चिस की स्वस्थता ) कहाँ से [ प्राप्त ] हा [ क्याकि विना उसके मानसिक स्वस्थता की प्राप्ति असंभव है ]॥ हमारी समझ में पहला अर्थ अधिक श्रेष्ठ है, अतः उसी के अनुसार इस दोहे का पदच्छेद किया गया है ।। हळु न हठीली कर सकें यह पावस-ऋतु पाई। अन गाँठि घंटि जाइ। त्य, मान-गाँठ छुटि जाइ ॥ ५६२ ॥ ( अवतरण )-मानिनी नायिका से सखी का वचन-- ( अर्थ )-[ इस महा उद्दीपनकारी ऋतु में तेरा मान करना उचित नहीं है। यदि तू करेगी, तो वह स्थिर न रह सकेगा, और तेरी बात ओछी पड़ जायगी । देख, बड़ी बड़ी ] हठीली [ भी ] इस पावस-ऋतु को पा कर हठ नहीं कर सकती ( अपने मान को, उद्दीपन के कारण, हठात् स्थिर नहीं रख सकतीं ): [क्योंकि इस ऋतु में जिस प्रकार ] अन्य गाँठ ( सन, सूत इत्यादि में पड़ी हुई गाँठ ) घुट जाती है ( वैठ जाती है, १. सँकति ( ४ ) । २. व्याँ घुटति ( २, ३, ५) ।