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बिहारी-रत्नाकर

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विहारी-रत्नाकर २३३ कस जाती है, उसी प्रकार मान-गाँठ ( मान के कारण हृदय में पड़ी हुई गाँठ ) छुट जाती है ( खुल जाती है ) ॥ वेऊ चिरजीवी, अमर निधरक फिरौ कहाइ । छिनु बिछरें जिनकी नहीं पावस ओइ सिराइ ।। ५६३ ॥ ( अवतरण )-प्रवत्स्यत्पतिका नायिका की उक्ति नायक से ( अर्थ )-[ यह पावस-ऋतु ऐसी उद्दीपनकारिणी तथा वियोगियों का दुःखदायिनी है कि इसमें क्षण मात्र के वियोग से प्राण बचना दुस्तर है; सा ऐसी ] पावस-ऋतु में क्षण मात्र बिछुड़ने से जिनकी आयु सिरा नहीं जाती ( समाप्त नहीं हो जाती ), वे[ लग ] भी [ ऋषियों तथा देवत' की भाँति ] चिरजीव ( बहुत काल तक जीने वाले ) [ तथा ] अमर ( कभी न मरने वाले ) कहला कर अिधड़क ( निःशंक ) फिर करो [ क्योंकि जब वे पावस-ऋतु में वियोग होने पर भी जीवित ही रह गए, तो फिर अब उनके ऐसे न मरने वालों को कौन मार सकता है ] ॥ नायिका का तात्पर्य यह है कि अप तो कहते हैं कि तू घबरा मत, मैं शीघ्र ही लौट ऊr, पर इस पावस-ऋतु मैं तो क्षण मात्र के वियोग से भी प्राण का वचना असंभव है। भेटत बनै न भावतो, चितु तरसतु अति प्यार। धरति लगाइ लगाइ उर भूवन, बसन, हथ्यार ॥ ५६४ ।। ( अवतरण )-नायक पर देश से आया है । नायिका का चित्त उससे मिलने को तरस रहा है, पर गुरुजनों की जजा से वह उसको भेट नहीं सकती । अतः उसके भूषण, वसन इत्यादि को ठिकाने से रखने के व्याज से छाती में लगा लगा कर प्रियतम-मिजन-सुख का अनुभव करती है । सखी-वचन सखी से| ( अर्थ )-[ परदेश से आए हुए प्रियतम से भेटने के निमित्त तो इसका ] चित्त अति प्यार से तरस रहा है, [पर गुरुजनों की लज्जा स] 'भावता' ( प्रियतम ) भेटते नहीं बनता । [ अतः वह उसे भेटने के अभाव में उसके ] भूषण, वसन [ तथा ! हथियारों को [ यत्नपूर्वक रखने के व्याज से ] छाती में लगा लगा कर रखती हैं। वाही दिन हैं ना मिव्यौ मानु, कलह की मूलु ।। भखें पधारे, पाहुने, है गुड़हर को फूलु ॥ ५६५ ॥ (. अबतरण )-एक दिन नायक, नाभि से वह ह कर कि मुझे री हुने जाना है, बाहर गया, और रात भर ३ बाथा । प्रातःचे अर वह चौटा, तो उसकी आँख में जाने की लाली, इफेज पर पीक-दीड की बाली एवं माथे पर महावर टी सी इत्यादि रति-चि देकर १. मिथुरत ( ३, ५) । ३. ब्राउ ( २ ) । ३. निसि ( २ )।