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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२७८

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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर २३५ @ सोरठा छल तो तन अवध-अनूप रूपु लग्यौ सब जगत की । मो दृग लागे रूप, दृगनु लगी अति चटपटी ।। ५६७ ॥ ( अवतरण )-नायक नायिका को देख कर मोहित हो गया है, और अब उसके देखे विना बेचैन है । अतः उसने यह दोहा पत्रिका में लिख कर उसके पास भेजा है | ( अर्थ )-तेरे अवधि-अनूप (अवधि के अनूप, हद के अनूप ) तन में सब जगत् का रूप लग गया है (तेरे सुंदर शरीर के बनाने में विधाता ने जगत् भर की सुंदरता लगा दी है ), मेरे दृग [ तेरे ] रूप से लग गए हैं ( अनुरक़ हो गए हैं ), [ और फिर इन } दृगों में अति चटपटी ( फिर फिर देखने के निमित्त विकलता ) लग गई है ॥ इस दोहे में लगने क्रिया के तीन जगह तीन अर्थ है-( 1 ) रूपु अग्यौ सब जगत क' में ‘लग्यै।' का अर्थ व्यय हो गया है । ( २ ) 'मां दृग जागे रूप में जागे' का अर्थ अलक़ हो गए हैं। (३) इगन जगा अति चटपटी' में ‘जगी' का अर्थ व्याप्त हो गई है ॥ ॐ दोहा ® हैं निगोड़े नैन डिगि, गहैं न चेत अचेत । हौं कसु कै रिस के करौं, येनिसुके हँसिदेत ॥ ५६८ ॥ निगोड़े = गोरहित अर्थात् पादहीन, पंगु । जव स्त्रियाँ किसी व्यक्ति, अथवा पदार्थ, का नाम उसको कोसती हुई लेती हैं, तो उसके साथ निगाड़े, दईमारे, दाढ़ीजार इत्यादि शब्द को, विशेषण रूप से, लगा देती हैं ॥ निसुके–“इस शब्द का अर्थ मानसिंह ने 'निपीते' लिखा है । 'निपीते' का अर्थ प्रतिरहित अर्थात् मुझसे प्रीति न रखने वाले अथवा मेरा शील न रखने वाले हो सकता है। श्रीर किसी टीकाकार ने 'निमुके' पाठ नहाँ रक्खा है। किसी ने 'निरखें, किसी ने 'निसिखे', किसी ने 'नसिखे', और किसी ने निसखे पाठ रक्खा है, और प्रत्येक ने अपने अपने पाठ के अनुसार अर्थ किया है । हमारी समझ में निसुके' पाठ ठीक है, क्योंकि बिहारी के आदि टीकाकार मानसिंह ने यही पाठ ग्रहण किया है । इसके अतिरिक्त हमारी अन्य एक प्राचीन पुस्तक में भी यही पाठ है । मानसिंह ने जो निमुके' का अर्थ किया है, वह अवश्य चिंतनीय है । हमारी समझ में 'निसुके' शब्द संस्कृत 'निस्वक' शब्द का अपभ्रंश है। 'निस्वक' का अर्थ 'निज संपत्ति-विहीन' है । अतः ‘निसुके' का अर्थ निर्धन, दरिद्र, रंक इत्यादि मानना चाहिए, और इस शब्द को भी निगोड़े शब्द की भाँति, कोसने के निमित्त, स्त्रियों की बोलचाल का शब्द समझना चाहिए । | ( अवतरण )—मान सिखलाती हुई सखी से नायिका कहती है ( अर्थ )-[ ये मेरे ] निगोड़े नयन डिग [ ही ] कर रहते हैं (मैं लाख चाहती हैं कि ये नीचे हुए स्थिर रहैं, जैसे कि मान के समय इनको रहना चाहिए, परंतु ये, पादहीन होने पर भी, नायक के सामने आने पर, चंचल हो कर उसकी ओर चले है। जाते हैं ), [ और ये ] अचेत (बुद्धिहीन ) चेत ( चेतावनी, शिक्षा ) नहीं गहते ( ग्रहण १. गहूँ ( २ ) । २. गदि ( ३, ५ ) । ३. निसषे ( २ )।