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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२७७

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२३४
बिहारी-रत्नाकर


२३४ बिहारी-रत्नाकर नायिका ने मान किया । इस बात को यद्यपि कई दिन हो चुके हैं, पर उसने अभी मान छेड़ा नहीं है। नायिका प्रौदा धीर है, अतः अपना मान प्रकट नहीं करती, पर नायक से उदासीन तथा अनममी रहती है, जिसके कारण कभी कभी कुछ कलह भी हो जाया करता है । नायक उसकी इस वृत्ति से घबरा कर सखी से पूछता है कि यह क्या बात है । तब सखी अत्तर देती है कि इस कलह के कारण अप ही हैं, क्योंकि श्राप ही उस दिन पहुनाई के बहाने गए, और गुड़हर का फूल बन कर, अर्थात् नयन, जबाट इत्यादि का लाल किए हुए, आए । वस, उसी दिन से इसने मन ही मन मान ठान रक्खा है, और वई। मान इस ब ल ह का मूल है, क्योंकि जिस घर में गुर का फूल जाता है, उसमें कलह का होना अनिवार्य है। सखी का अभिप्राय यह है कि नायक समझ जाय कि नायिका ने मेरे ही अपराध से मन ठान रक्खा है, और उस को मना ले ( 24 )- हे पाहुने ( यह मिथ्या कहने वाले कि मुझे पाहुने जाना है ), [ तुम जो ] गुड़हर के फूल बन कर ( अपने नयनों, कपोलों तथा ललाट को लाल किए हुए ) [ उस दिन ] ‘भले' ( रखूब ) आए, [ बस ] उसी दिन से [ नायिका का ] मान, ( जो कि ] कलह ( बात बात में झगड़े ) का मूल [ है ], नहीं मिटा [ फ्याँकि गुड़हर का फूले जहाँ जाता है, वहाँ कलह होता ही है ] ॥ गुड़हर के फूल के विषय में यह प्रसिद्ध है कि वह जिस घर में रहता है, उसमें कज्ञह होता है । ‘पाहुने संबोधन का प्रयोग इस दोहे में कुछ विलक्षण रीति से हुआ है, और यही इसके यथार्थ अर्थ के समझ में आने में बाधा डालता है। इसके विषय मैं याँ समझना चाहिए कि जैसे यदि कोई मनुष्य विद्या का उपार्जन करने के बहाने घर से जार, और चारी इत्यादि कर के लौट अवे, तो बहुधा व्यंग्यभापी लोग उसको ‘आइए, विद्यार्थीजी' अथवा 'आइए, इंडितजी' कह कर संबोधित करेंगे, चसे ही सखी पहुनाई के व्याज से अन्य स्त्री के यहाँ जाने वाले इस नायक को पाहुने शब्द से संयधित करती है। मोहे लजावत, निलज ए हुलसि मिलेत सबै गात । भानु-उदै की ओस लौं मानु न जानाति जात ।। ५६६ ॥ ( ऋतरण )-- सखी ने नायिका से कहा है कि यद्यपि मैंने कई बार तुझको मान करने का उपयोग समझा दिया है, तथापि बड़े लज्जा की बात है कि पहले तो तू मान ठानती है, पर नायक को देखते ही ऐसी मोह में आ जाती है कि उससे लिपट जाती और मान छोड़ देती है। यह सुन कर नायिका उसको उत्तर देती है | ( अर्थ )-[ मैं क्या करूँ, मेरे ] ये सब निर्लज अंग [ नायक को देखते ही उससे बहुत ] हुलस ( उमॅग) कर मिलते हैं, [ और ] मुझे [ तुझसे ] लञ्जित करते हैं । भानु के उदय [ के समय ] की प्रेस की भॉति मान के जाते हुए [५] नहीं जान पाती ॥ | इस दोहे का भाव ५४८-संख्यक दोहे के भाव से मिलता है । १. उलमि ( ३ ) । २. मिले ( २ ) । ३. निज ( ५ ) । ४. जान्यो ( ३, ५ ) ।।