पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२८३

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बिहारी-रत्नाकर


३५० बिहारी-रत्नाकर तथा नायक की ओर से मुहँ फेर कर खड़ी हो गई है। पर कोई सखी उसकी पुकाबली से उसका अनुराग क्षक्षित कर के कहती है ( अर्थ )[ चाहे तू ] मुंह फेर कर रह ( स्थित हो ) अथवा इधर ( हम लोगों की ओर ) देख [तेरा अनुराग छिपाए छिप नहीं सकता ]। हे नारि, [ तेरी ] पीठ के पुलके ( पुलक-समुह ) [ नायक की ] दृष्टि के स्पर्श से उठ कर [ तेरे ] चित्त को हित-समुहा ( प्रेमोन्मुख अर्थात् प्रेम की ओर ढला हुआ ) होना पुकार कर ( प्रकाश रूप से ) कहते हैं ॥ बिछरें जिए, संकोच इहिँ बोलत बनत न बैन । दोऊ दौरि लगे हियँ किए लॉहैं नैन । ५८ ।। ( अवतरण )-नायक परदेश से आया है। नायक नायिका, दोन के हृदय में इस बात की लजा है कि हम लोग जे संयोग-दशा मैं यह कहा करते थे कि वियोग में हम न जितेंगे, वह मिथ्या हो गया। इसी जजा से दोन कुछ बोल नहीं सकते । बस, टोन दौड़ कर नीची अाँखें किए हुए लिपट गए । सखी-वचन सखी से-- ( अर्थ )-बिछुड़ने पर [ भी ] जीते रहे, इस लज्जा से [ दोनों से कुछ ] वचन बोलते नहीं बनता । [ बस, ] दोनों लजह ( लज्जा से नीचे ) नयन किए हुए दौड़ कर [ एक दूसरे की ] छाती से लग गए ।। मोहिँ करत कत बावरी, करें दुराउँ दुरौं न । कहे देत रँग राति के रँग-निनुरत से नैन । ५७६ ।।। ( अवतरण )-खंडिता नायिका का वचन शठ नायक से ( अर्थ )-मुझे [ तुम मीठी मीठी, मिथ्या बातें कर के ] बावली ( झूठी बातों से धोखा खाने वाली ) क बनाते हो ( बनाया चाहते हो ) । [ तुम्हारे ] दुराव ( छिपावे ) करने से [ रात के अनंद ] छिपते नहीं । [ तुम्हारे ] रंग निचुइते से ( भली भाँति लाल ) नयन रात के रंगों ( आनंद-क्रीड़ों ) को कहे देते हैं ( स्पष्ट रूप से प्रकाशित किए देते हैं ) ॥ छिर्दै छिपाकर छिति छंचें तम ससिंहरि न, सँभारि ।। हँसति हँसति चलि, ससिमुखी, मुख नैं चरु टारि ॥ ५८० ।। ( अवतरण )-अभिसारिका नायिका नायक के पास जा रही है। मार्ग में इसको चंद्रास्त हो गया और अंधेरा छा गया है, जिससे वह संकेतस्थल की ओर, जो कि कदाचित् किसी निर्जन १. बने ( ३, ५ ) । २. बाउरी ( ३ ) । ३. करत ( ३, ५) । ४. दुराव ( ४ ) । ५. बिया ( २ ), छपे (४)। ६. छपाकर (४) । ७. अयो (२) । ८. समहरि ( २ ), सासहर ( ३, ५) । १. अंचल ( २ ) ।