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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२९

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बिहारी-रत्नाकर (१) राय बहादुर वावु अविनाशचंद्र सेन सी० आई० ई०, मॅवर कोसिल तथा प्राइवेट सेक्रेटरी महाराजा साहव बहादुर, (२) ठाकुर श्रीनंदकिशोरसिंह साहब, रईस और मैंबर कौंसिल, (३) राय वहादुर श्री पं० गोपीनाथ जी पुरोहित एम० ए०, सी० आई० ई०, (४) श्री पं० हरनारायण जी पुरोहित बी० ए०, दारोगा ड्यौदी रनिवास, (५) श्रीयुत बालदत्त जी खवास ॥ ये सब महाशय बड़े सज्जन तथा विद्याव्यसनी हैं। इन्होंने हमारे पंडित जी को अनेक सहायताएँ पहुँचाईं, जिनके लिए हम उनके हृदय से कृतज्ञ हैं ॥ इन महानुभावों के अतिरिक्त कई सहृदय कवि-कोविदों से भी हमारे पंडित जी को सहायता मिली । उनमें से मुख्य ये हैं (१) महामहोपाध्याय श्री पं० दुर्गाप्रसाद जी द्विवेदी, मुख्याध्यापक राजकीय पाठशाला, (२) श्री पं० रामनारायण जी मिश्र, अध्यापक महाराजा कॉलेज, (३) श्री पं० गौरीदत्त जी कवि, (४) श्री विनोदीलाल जी कवि, (५) श्री पं० मथुरानाथ जी कवि ॥ इन विद्वद्वरो के भी हम कृतज्ञ हैं । जो पुस्तकें हमारे पंडित जी जयपुर से लाए, उनमें बिहारी के किसी शिष्य की लिखी हुई सतसई की एक प्रतिलिपिभर है। श्री रामसिंह जी के राज्यकाल में 'सम्राट जी' नाम के एक राजगुरु थे। विहारी के किसी शिष्य ने, सं० १७३९ में, सतसई की एक प्रति लिख कर उन्हें अर्पित की थी । उसकी एक प्रतिलिपि संवत् १८०० के भाद्र-कृष्ण ३० चंद्रवार की लिखी हुई इस समय जयपुर के निजी पुस्तकालय में विद्यमान है । उसी की प्रतिलिपि हमारे पंडित जी ले आए हैं। संवत् १८०० की लिखी हुई इस सतसई के अंत में, उड़े हुए से अक्षरों में, कुछ लिखा है, जिसका अभिप्राय यह है कि यह पुस्तक व्रह्मपुरी के राजगुरु की संवत् १७३६ की प्रति से लिखी गई है, जिसे बिहारी के शिष्य ने लिख कर गुरु जी को दिया था, पर शोधने को रह गई है ॥ . इस पुस्तक के बीच बीच में किसी किसी शब्द के ऊपर अथवा पार्श्व में कुछ उर्दू अक्षरों में लिखा है, किंतु उड़ जाने के कारण स्पष्ट पढ़ा नहीं जाता। प्रतीत होता है, कहाँ कहीं शब्दार्थ लिखा गया है ॥ इस शिष्य वाली पुस्तक में भी दोहों का पूर्वापर क्रम वही है, जो रत्नकुंवरि जी वाली पुस्तक में । केवल ५-७ दोहों में स्थानांतर दिखलाई पड़ता है, और २२ दोहे, जिनमें प्रायः भगवत्-संबंधी कविता है,और जो इस क्रम की अन्य पुस्तकों में बीच बीच में आए हैं, इस पुस्तक के अंत में रक्खे हुए मिलते हैं। रत्नकुंवरि वाली पुस्तक से इसमें ये ५ दोहे न्यून हैं संपति केस, सुदेस, नर नमत दुहुँनु इक बानि । विभव सतर कुच, नीच नर, नरम थिभव की हानि ॥ १ ॥