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प्राक्कथन औधाई सीसी सु लखि विरह-वरत बिललात । बीचहिँ सुखि गुलाब गौ, छटो छुई न गात ॥ २ ॥ सीस-मुकट, कटि-काछनी, कर-मुरली, उर-माल । इहिँ बानक मो मन सदा बसौ बिहारी लाल ॥ ३ ॥ एरी, यह तेरी, दई, क्यै हैं प्रकृति न जाइ । नेह-भरें हिय राखियै, तउ रूखियै लखाइ ॥ ४ ॥ हुकुमु पाइ जयसाहि कौ, हरि-राधिका-प्रसाद । करी बिहारी सतसई भरी अनेक सवाद ॥ ५ ॥ ६८९ दोहों के पश्चात् इस प्रति में ७३ दोहे ऐसे दिए हैं, जो इस क्रम की और किसी प्रति में नहीं मिलते, और बिहारी-रचित भी प्रतीत नहीं होते । वे बिहारी-रत्नाकर के द्वितीय उपस्करण में दे दिए गए हैं । इन दोनों पुस्तकों के अतिरिक्त एक पुस्तक संवत् १७७२ की लिखी हुई भी हमारे पंडित जी जयपुर से, किसी अन्य कवि से, ले आए । यह उदयपुर-प्रांत के बेलागाछीनिवासी मानसिंह कवि की टीका-समेत है। खेद की बात है, इसमें आदि के कुछ पत्रे नहीं हैं, जिस से २५० दोहों की टीका इसमें नहीं मिलती। पर जो दोहे इसमें हैं, उनका पूर्वापर क्रम ठीक वही है, जो रत्नकुंवरि जी वाली पुस्तक मैं ॥ यों ते जयपुर तथा अन्यान्य स्थानों से सतसई की कितनी ही मुल तथा सटीक प्रतियाँ प्राप्त हुईं, पर ऊपर कही हुई पाँच प्रतियों से प्राचीनतर प्रति हमारे देखने में नहीं आई। इनके अतिरिक्त सतसई की एक और सटीक प्रति भी हमें अभी थोड़े दिन हुए, विहारी-रत्नाकर का मुख्य भाग छप जाने के पश्चात् मित्रवर श्रीयुत पं० दुलारेलाल जी भार्गव के द्वारा, जयपुर-निवासी श्रीयुत पं० हनूमान् शर्मा जी से प्राप्त हुई है । हमारे अनुमान से बिहारी-सतसई पर यही सबसे पहली टीका है । इसमें भी ५-७ दोहों को छोड़ कर शेष दोहों का पूर्वापर क्रम वही है, जो रत्नकुँवर जी वाली पुस्तक में ॥ । | इन पाँच प्रतियों में दोहों का पूर्वापर क्रम प्रायः एक ही सा दृष्टिगोचर होता है। और ये हैं भी बहुत प्राचीन, अतएव यह अनुमान करना युक्तियुक्त ही है कि यही क्रम बिहारी की दोहा-रचना का है, और उन्होंने अपनी सतसई इसी क्रम में छोड़ी । यदि बिहारी ने अपनी सतसई में दोहों का कोई साहित्यिक अथवा अन्य प्रकार का क्रम बाँध दिया होता, तो फिर उन्हें इस प्रकार घालमेल करके क्रमहीन कर देने को न तो किसी को साहस ही होता, और न कोई आवश्यकता ही रहती । अस्तु । सतसई का जो क्रम पहले पहल कोविद कवि ने संवत् १७४२ मैं लगाया, उसके अंत में यह दोहा लिखा है किए सात सौ दोहरा, सुकबि बिहारीदास । बिनहिँ अनुक्रम ए भए, महि-मंडल सुप्रकास ॥ . इससे भी बिहारी का अपनी सतसई को विना किसी विशेष क्रम है। के छोड़ जाना सिद्ध होता है, और यही वात पुरुषोत्तम जी के इस दोहे से भी व्यजित होती है