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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर २४ ( अबतरण )-नायिका अपने देवर से अनुरक़ है। अतः उसको उसके विवाह-उत्सव के अवसर पर दुःख होता है, जिससे सखा उसकी प्रीति लक्षित कर के कहती है ( अर्थ )-और ( घर तथा पड़ोस की ) सभी [ स्त्रियाँ तो ] हर्षित हुई हँसती हैं, [ और ] उछाह से भरी हुई [ ब्याहुले गीत ] गाती हैं। [ पर ] है बहू, देवर के ब्याह में [ एक ] तु ही क्यों विलखी ( उत्साह-रहित सी, दुखी सी ) फिरती है ॥ थोड़े दिनों की ब्याही हुई दुलहिन को सखियाँ भी प्रायः ‘बहू' कह कर संबोधित करती हैं। बाल छबीली तियनु मैं बैठी आपु छिपाइ । अरगट हाँ' पानूस सी परगट होति लखाइ ॥ ६०३ ।। | पु= अपनापा, निज स्वरूप ॥ अरगट = अलगंट, पृथक् ॥ पानूस ( फ़ा० फानूस ) = वह काच * घरा, जिसमें मोमबती इत्यादि जलाई जाती है। हिंदी में इसका नाम कमल अथवा कँवल है। फ़ानूस शब्द का अर्थ, यहाँ, लक्षण लक्षणा से, फानूस में स्थित दीपक होता है; जैसे पंजाब बड़ा बहादुर है' कहने से पंजाब निवासी पुरुष समझे जाते हैं । | ( अवतरण )-नायिका की सखो अथवा दृती नायक से उसके अनुपम रूप का वर्णन करती है कि उसकी छवि ऐसी निराला है कि वह बड़ी बड़ी सुंदर स्त्रियों के बीच मैं भी फ्रान्स से विर हुए दीपक की भाँति सबसे अलग ही दिखाई देता है ( अर्थ )-[ अनेकानेक बड़ी बड़ी ] छबीली ( सुंदर, चमक दमक वाली ) स्त्रियों के बीच में [ भी ] 'अषु' (निज रूप को ) छिपा कर बैठी हुई [ वह ] बाला फ़ानूस [ के दीपक ] सी [ अपने चारों ओर के आवरण से ]'अरगट' (अलग ) ही 'परगट' (प्रकट, स्पष्ट ) 'लखाइ' ( लक्षित ) होती है ।। इस दोहे में सखी के कहने का वही भाव है, जिस भाव से ऐसे वाक्य कहे जाते हैं कि 'अजी, वह लाख मैं अलग दिखाई देते हैं। एरी, यह तेरी, दई, क्याँ हैं प्रकृति न जाइ । नेह-भरें हिय राखियै, तउ रूखियै लखाइ ।। ६०४ ॥ हिय ( हृद)- यह शब्द यहाँ श्लिष्ट है । इसका एक अर्थ चित्त और दूसरा नीचा स्थान, अर्थात् दृढा, है। इन्हीं दोनों अथो के बल से इसमें श्लिष्टपद-रूपक किया गया है, अर्थान् ‘हिय' का अर्थ हृदय-रूपी गड्ढा माना गया है ।। ( अवतरण )-मानिनी नायिका से सखी का वचन ( अर्थ )-अरी [ सखी ], हे दैव ( बड़े आश्चर्य की बात है ) ! तेरी यह [ विखक्षण ] प्रकृति ( बान ) किसी प्रकार नहीं जाती ( छूटती )। [ तुझक नायक के द्वारा ] नेह (१. प्रीति । २. तेल, घृत इत्यादि ) से भरे हुए इसव-इपी पात्र में रखा जाता १. हैं ( ३,५)। २. होर ( २ )।