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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/२९६

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बिहारी-रत्नाकर

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विहारीजाकर खगना उचित नहीं है, तुझे अपने को हैंखिए दिए रहना चाहिए । नायिका उसको उत्तर देती है ( अर्थ )-[ मैं क्या करूँ,] नयन मैरे वश में नहीं हैं । ये मुंहजोर ( लगाम को खाँचने पर भी न रुकने वाले ) तुरंग ( घेई) की भाँति लज्जा-रूपी लगाम को नहीं मानते, [ और ] खाँचते हुए ( खाँचते खींचते, लज़ा के कारण रोकते रोकते ) भी [नायक की ओर ] चले [ही ] जाते हैं । कर-मुंदरी की आरसी प्रतिबिंबित प्यो पाई। पीठि दियँ निधरक लखै इकटक डीठि लगाइ ।। ३११ ॥ ( अवतरण )-मध्या नायिका की बेखटक नायक का स्वरूप देखने की चातुरी का वर्णन कोई सखी किसी अन्य सखी से करती है | ( अर्थ )-हाथ की मुंदरी ( मुद्रिका, अंगूठी ) की आरसी ( दर्पण ) में प्रियतम के प्रतिबिंबित ( छाया डाले हुए ) पा कर ( अर्थात् प्रियतम की छाया अरसी में पड़ी हुई देख कर) [ देख, यह ] पीठ दिए ( उनकी ओर पीठ किए ) एकटक दृष्टि लगा कर ( बड़े ध्यान से ) निधडक (बेखटक अर्थात् इस बात की शंका से रहित हो कर कि यदि कोई मुझे प्रियतम को एकटक देखते देख लेगा, तो मुझे संकुचित होना पड़ेगा ) देख रही है ॥ इती भीर हैं भेदि कै, कि हूँ है, इत छ । फिरै डीठि जुरि डीठि स सबकी डीठि बचाइ ॥ ६१२॥ ( अवतरण )-नायक किसी मेले इत्यादि के अवसर पर भीड़ में खड़ा है, और नाविका भी वहीं कुछ दूर पर है। नायिका की दृष्टि सारी भीड़ में से होती हुई धूम फिर कर नायक की ओर जाती है, और सबकी आँखें बचा कर उसकी दृष्टि से मिख कर लौटती है । नायिका के इसी प्रेमाधिक्य तथा अवलोकन-चातुरी का वर्णन नायक अपने किसी अंतरंग मित्र से करता है ( अर्थ )-इतनी भीड़ को भी भेद ( बेध, फाड़) कर, किसी न किसी ओर से हो कर (घूम फिर कर ), इधर (मेरी ओर ) आ कर [उसकी] दृष्टि, [ और] सबकी दृष्टि बचा कर, [ कैसे स्नेह तथा चातुरी से मेरी ] दृष्टि से मिल कर लौट जाती हैं ॥ लाई, लाल, विलोकियै, जियें की जीवन-मूलि । रही भौन के कोनँ मैं सोनजुही सी फूलि ।। ६१३ ॥ ( अवतरण )-नायक नायिका की प्रतीक्षा करता हु कुंजभवन में बैठा कुछ अचेत सा हो १• प्रतिबिंब्यो ( २, ४ ) । २• आई ( २ ), जाइ ( ४ ) । ३. कितऊ (३) । ४• जी ( २ ) । ५. जीवनि ( २, ४ ) । ६. कॉन ( २ )।