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बिहारी-रक्षाकर गया है। इतने ही मैं सूती नामिका को ले कर आई है, अर नायक के सावधान कर ( अर्थ )-हे लाल ! [नैक सावधान हो कर और ऑस्खे खोल कर ] देखिए, [ में आपके ] जीव की संजीवनी जड़ी ( आपके प्राणों की परमप्रिय नायिका ) ले आई हैं। [देखिए, वह इस ] भवन के कोने में सेनजुही [ की लता ] की भाँति फूल रही है । ओठ उँचै, हाँसी-भरी दृग भौंहनु की चाल । मो मनु कहाभ पी लियौ, पियत तमाकू, लाल ।। ६१४ ।। | ( अवतरण )-नायिका ने नायक को धमाकू पीते देखा है, और उसकी उस समय की बेष्टा पर मोदित हो गई है। अतः वह अपनी अंतरंगिनी सखी से कहती है ( अर्थ )-लाल ने तमा पीते समय अठ के ऊँचा कर के, हँसी भरी हुई दृगों [ तथा ] भौहों का [ महिनी ] चाल से, क्या मेरा मन [ भी तमाकू के साथ ] नहीं पी लिया ( अवश्य ही पी लिया ) ॥ जे तय होत दिखादिखी भई अमी इक आँक । दरौं तिरीछी डीठि अब है बीछी कौ डाँक ॥ ६१५ ।। ( 'अबतरण )-नायक नायिका से कह घाटबाट मैं मैंट हुई थी, और दोनों ने दोनों को श्रर तिरछी आँख से कटाक्ष किए थे। उस समय तो दोन को एक दूसरे की वे तिरछी दृष्टियाँ बड़ी अच्छी लगी थी, क्योंकि उनसे एक के दूसरे का प्रेम लक्षित हुअा था । पर अब विरह में वे तिरछी चितवनैं दोनों को विकल कर रही हैं। यही वृत्तांत सखियाँ आपस में कहती हैं ( अर्थ )-जो [दोनों की तिरछी दृष्टियाँ] तब [ अर्थात् ] ‘दिखादिखी' ( देखा देख) होते समय ‘इक ऑक' (एकदम, सर्वथा ) [ दोनों को ] ‘अर्थ’ ( अमृत ) हुई थी ( अमृत सी नीठी लगी थीं ), [ सो ] अब [ विरह में वे ही ] तिरछी चितवनै विच्छू का डंक हा कर [ दोनों का ] दगती ( दागती, जलाती, पीड़ा देती, अर्थात् अपने स्मरण से उत्तप्त करती ) हैं ॥ | इस दोहे मैं ज' शब्द बहुवचन है । अतः ‘ढाटि' शब्द भी बहुवचन हुआ । इसलिए ‘बाछी को ।' एकवचन पद के स्थान पर ‘बीछी के डॉक' बहुवचन पद, अथवा 'जे' के स्थान पर जा', होता, तो बहुत अच्छा होता । इसी विचार से कई एक टीकाकारों ने 'जे' के स्थान पर 'ज', और कई एक ने 'छी के डाँका' के स्थान पर 'बीछा के साँझ' पाठ रक्खा है । पर हमारी चार प्राचीन पुस्तक मैं 'ज' तथा 'बछ। कौ डॉक', ये ही पाठ हैं, अतः इस संस्करण मैं ये ही रखे गए हैं। नैंकौ उहिँ न जुदी करी, हरषि जु दी तुम मेल । उर हैं बासु छुट्यौ नहीं वास छुटै हूँ, लाल ॥ ६१६ ।। १. वहि ( २ ), ऊ ( ३, ५ ) । २. लाल ( ३,५ ) । ३. माल ( ३, ५)।