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बिहारी-रत्नाकर


२६ हिरीरलाकर मुझको देखा है, अपने ] तन में पैठती हुई सी (ऐसी संकुचित हो कर सिमिटती हुई कि मानो वह अपने ही शरीर में स्वयं पैठ रही है) लजा कर बैठ गई ॥ पटु पाँखै, भखु काँकरै, सपर परेई संग । सुन्वी, परेवा, पुंडमि मैं एकै तुहीं, विहंग ।। ६१९ ॥ परेवा=पागवत. कबूतर ॥ ( अवतरण )--कोई भोजन-वस्त्र-उपार्जन के निमित्त परदेश में पड़ा हुआ मनुष्य, कबूतर को कबूतरी के साथ सुख से कंकादियाँ चुगते देख कर, कहता है ( अर्थ )-ॐ परेवा विहंग ( पक्षी ), ‘पुहुमि' [पृथ्वी ] में एक तू ही सुखी है, क्योंकि तेरा ] पट ( वस्त्र )[ तो तेरा] पंख ही है [ जो कि तेरे पास ही उपस्थित है, तेरा] ‘भखु ( भक्ष्य, मेजन का पदार्थ ) कंकड़ ही है [ जो कि सब ठौर प्राप्य है, और तेरी ] सपर ( पक्षयुत, सब स्थानों में तेरे साथ जाने की योग्यता रखने वाली ) परेई (कबूतरी ) [ तेरे ] संग में है ॥ अरे, परेखौ को करै, जॅहीं विलोकि विचारि ।। किहिँ नर, किहिँ सर राखियै स्वरें बर्दै परिपरि ॥ ६२० ॥ परेखौ-यह शब्द संस्कृत शब्द 'प्रेक्ष' से बना है । 'प्रेक्ष' का अर्थ देखना है, पर यह शब्द किसी व्यतीत दशा पर दृष्टि डालने के अर्थ में प्रयुक्त होता है । भाषा में “परेखा' शब्द किसी व्यतीत बात, अथवा किसी व्यक्ति के किए हुए बर्ताव, को सोच कर दुखी होने के अर्थ में प्रयुक्त होता है । परिपारि-यह संस्कृत शब्द ‘पालि' से 'पर' उपसर्ग लगा कर एवं ‘ल' के स्थान पर 'र' आदेश कर के बनाया गया है । ‘पालि का अर्थ किनारा, घेरा, मर्यादा इत्यादि है ॥ ( अवतरण )-संसार के बहुत बड़े मनुरुप के मइ-इन व्यवहार पर कवि की प्रास्ताविक रवि मन से अथवा किसी मित्र से| ( अर्थ )-अरे [ मन अथवा मित्र, बड़े मनुष्यों के मर्यादा-हीन बर्ताव का ] परेखा कोन करने बैठे, तू ही [ संसार के व्यवहार को ] विधार देख ; किस नर [ तथा ] किसः सर ( ताल ) से 'ख' ( बहुत ) बढ़ने पर ‘परिपारि' ( मर्यादा ) रक्खी जाती है ( अर्थात् बहुत बढ़ जाने पर सभी मनुष्य तथा ताल मर्यादा भंग कर डालते हैं ) ॥ . तौ, बलियै, भलियै बनी, नागर नंदकिसोर। जो तुम नीकै कै लख्यौ मो करनी की ओर ।। ६२१ ॥ ( अवतरण )-भक का वचन श्रीकृष्ण चंद्र से( अर्थ )-हे नागर नंदकिशोर, यदि [ कहाँ ] तुमने मेरी करनी की ओर ‘नकै कै २. सुपरि ( २ ) । २. भूमि (४) । ३. पर (२) । ४. परे ( ३, ५), बडे ( ४ )। ५. वारि ( २, ४ ) ।