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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-राकर ( भली भाँति, अर्थात् उसके भली बुरी होने की परीक्षा करने की यथार्थ दृष्टि से ) देखा, तो [ मैं तुम्हारी ] बलिहारी ही [ गया ], [ मेरी गति ] भली ही बनी ( सर्वथा बिगड़ी) [ अर्थात् तुम मेरी भली बुरी करनी पर ध्यान न दो, मैं जैसा हूँ, वैसे ही की अपनी कृपा मात्र से तार दो ] ॥ । चाह भरी, अति रस भरीं, बिरह भरीं सब यात ।। कोरि सँदेसे दुहुनु के चले, पौरि लौं जात ।। ६२२ । । ( अवतरण -नायक विदेश जाने के निमित्त नाविका से बिदा हो कर अभी पौरी तक भी नहीं पहुँचने पाया है कि दोन को ऐसा विरह व्याप्त हो गया कि उनकी सब क्रियाएँ, चेष्टाएँ इत्यादि चाह, रस तथा दुःख से भर गईं, और नायक के पौत तक पहुँचते ही पहुँचते दोनों ओर से करोड़ संदेश आने जाने लगे। सखी-वचन सखी से ( अर्थ )-[ नायक के परदेश जाने के निमित्त नायिका से विदा हो कर ] परी तक जाते जाते (पहुँचते पहुँचते ) [ही दोनों की ] सब बातें ( क्रियाएँ, चेष्टाएँ इत्यादि ) चाह ( मिलने की अभिलाषा ), अत्यंत रस (स्नेह )[तथा] विरह (विरह-दुःख) से भर गई, [ और इतने ही समय के बिछोह में ] दोनों के केटि (अनगिनती ) संदेश चले ( आने जाने लगे )॥ सुनि पग-धुनि थिई इतै न्हाति दियँ हीं पीठि।। चकी, झुकी, सकुची, डरी, हँसी खजी सी डीठि॥ ६२३ ॥ झुकी = निहुर गई । ( अवतरण )-नायिका किस नदी अथवा सरोवर में स्नान कर रही थी । इतने ही मैं नायक भी वहाँ आ गया । नायिका की पीठ नायक की ओर थी । उसने, पैर की अहः पा कर पीट दिए ही हुए किंचिन्मोत्र श्रीवा फेर कर नायक को देखा और चकी, झुकी इत्यादि । उसकी इन्ही चेष्टा का वर्णन नायक उसकी सखी अथवा किसी दूती से करता है | ( अर्थ )[ उस ] स्नान करती हुई [ नायिका ]ने [ मेरे ] पाँव की आहट सुन कर पठ दिए ही हुए ‘इतै' ( इस ओर अर्थात् मेरी ओर ) देखा, [ और ] चकित हुई [ कि मैं वहाँ कहाँ से पहुँच गया ], झुकी (निहुर गई ) [ जिसमें उसके उरोज न दिखाई दें ] सकुची (सिमिट गई ), हरी [ कि अन्य कोई तो नहीं देखता है, और ] लजाई हई सी दृघ्रि से हँसी ।। कर लै, सँघि, सेराहि हैं रहे सबै गहि मौनु । गंधी अंध, गुलाब कौ गवई गाहकु कौनु ॥ २४ ॥ १. चितयो ( ५ ) । २. ही ( ३ ), ई ( ४, ५ ) । ३. झखी ( २ ) । ४. लजौहीं” ( २ ) । ५. सराहि के ( २ ) ।