बिहारी-रत्नाकर ( अवतरण )-किसी गुणी की अबूझ खोग में अपना गुणमाइक पाने की चेष्टा पर अन्योति
| ( अर्थ )-अरे अंधे ( निर्बुद्धि ) गंधी ! इस ‘गव' ( ग्रामीण मंडली ) में [तरे ] गुलाब ( गुलाब-जल ) का कौन ग्राहक [ बैठा ] है । [ तू अपना समय यहाँ वृथा नष्ट करता हैं, देख वो सही कि तेरे गुलाब-जल को ] हाथ में से, सँध [ अर ] सराह ( प्रशंसा कर ) कर भी [ ये ] सबके सब चुरी लग गए हैं [ किसी ने गाँठ से पैसा खोल कर फुटे मुंह से भी यह न कहा कि मुझे इसमें से इतना दे दो, और दाम ले लो ] ॥
मिलि चलि, चलि मिलि, मिलि चलतऑर्गन अथयौ भानु ।
भयो मुहरत भोर को पौरिहिँ” प्रथम मिलानु ॥३२॥ मुहुरत ( मुट्टन ) = दो घड़ी का काल । भाषा में इसका अर्थ प्रायः किसी कार्य के निमित्त ज्योतिषद्वारा स्थिर किया हुया शुभ समय होता है ।।
( अवतरण )-नायक के विदेश जाने का मुहूर्त प्रातःकाल में है। वह उस समय नायिका से बिदा हो कर । पर दोन के प्रेमाधिक्य के कारण मिल्ल मिल कर चलने तथा दो एक पग चन कर फिर मिलने में इतना विलंब जग गया कि आँगन ही मैं संध्या हो गई, जिससे नायक को अपने उस प्रातःकाल के प्रस्थान-मुहूर्त का पहिला पड़ाव पर ही मैं करना पड़ा । इसी प्रेमाधिक्य का वर्णन कोई सल्ली किसी अन्य सखी से करती है-- | ( अर्थ )- नायक के नायिका से ] भेट कर [ एक दो पग ] चल, [ और इस ] चलने के पश्चात् [ फिर ] भेट-[ इस प्रकार ] मिल कर ( विदा हो कर )चलते हुए [ इतना विलंब लगा कि सारा दिन बीत गया, और ] अाँगन [ ही ] में सूर्य अस्त हो गया । [ अतः उसके ] प्रातःकाल के मुहूर्त ( प्रस्थान-मुहूर्त ) का पहिला 'मिलानु' ( डेरा, पड़ाव ) पोरी ( ड्योढ़ी ) ही में हुआ ॥
पचरंग-रंग-बॅदी खेरी उँटै अगि मुख-जोति।
पहिरै चीर चिर्नाटयाचटक चौगुनी होति ॥ ६२६ ॥ ऊगि - किसी वस्तु के धृमिल से प्रकाशित हो जाने को उगना कहते हैं । चीर चिनौटिया = चुनरी । चिनवट गर्थत् नुट दे कर देंगे जाने के कारण एक विशेष प्रकार की राँगावट के चीर का चूनरी । कहते हैं । इन्हीं को चिनोटिया ग्रथवा चुनौटिया चीर भी कहते हैं ।
( अबतरण ) -सखी अथवा दूती, मायिका की शरीर-गुति की इस ब्याज से प्रशंसा कर के कि उसकी झलक वीर पर पड़ने से चीर का रंग चटकीला हो जाता है, नायक के हृदय में रुचि उपजाती है| ( अर्थ )-[ उसके शरीर पर ] धारण करने से चिनौटिया चीर ( चूनरी ) पर
१. मिलि मिलि चलि चलि (४) । २. अँगना (२) । ३. ॐ (३) । ४. पोरी (४) । ५. दिने ( ४ ) । ६• उठी ( २ )।
पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३०१
दिखावट
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२५८
बिहारी-रत्नाकर