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बिहारी-रत्नाकर चकी जकी सी है रही, बुझैं बोलत नीठि।
कहूँ डीठि लागी, लगी कै काहू की डीठि ।। ६३६ ॥ ( अवतरण )-पूर्वानुरागिनी नायिका की जड़ता दशा का वर्णन सखियाँ आपस मैं करती हैं| ( अ )-[ देखो, हमारी यह लाड़ली सखी कैसी ] 'चकी' (चकराई हुई ) [ तथा } ‘जकी' (जकड़ी हुई, स्तंभित ) सी हो रही है, [ और स्वयं पहिले का सा हँसना वोलना । तो दूर रहा, हम लोगों के ] बुझने (पूछने, छेड़ छाड़ करने ) पर [ भो ] नीठि ( बड़ी कठिनता से ) बोलती है । ( जान पड़ता है कि इसकी ] दृष्टि कहाँ लग गई है ( यह किसी पर अनुरक्र हो गई है ), अथवा किसी की दृष्टि [ इसको ] लग गई है ॥
भावरि-अनभावरि-भरे करौ कोरि बकवादु ।
अपनी अपनी भॉति कौ छुटै न सहज सवा ।। ६३७ ।। ( अवतरण )-कवि की प्रास्ताविक उक्ति है कि चाहे किसी को अच्छा लगे अथवा बुरा, पर अपना अपना प्राकृतिक स्वभाव छूटता नहीं
( अर्थ )--[ किसी के स्वभाव के विषय में ] 'भावरि-अनभावरि' ( पसः अथवा नापसंद होने के भाव ) से भरे हुए [ लोग चाहे ] करोड़ बकवाद ( वृथा की कहा सुनी ) किया करो, [ पर ] अपनी अपनी भाँति ( रीति, प्रकार ) का सहज ( प्रकृति-सिद्ध ) सवाद ( स्वाद, रुचि ) नहीं छूटता ॥
बकवाद शब्द का प्रयोग यहाँ बिहारी ने पुलिंगवत् किया है। यह शब्द वाक्य-वाद' से बना है, और इसका अर्थ ऐसा वादविवाद है, जिसमें वृथा वाक्य है। पर झगड़ा किया जाय । संस्कृत में यह शब्द पुलिंग ही होता है, पर भाप में यह स्त्रीलिंग माना जाता है ।
दूखौ खरे समीप के लेत मानि मन मोदु ।।
होत दुहुनु के दृगनु हाँ बतरसु, हँसी-बिनोदु ।। ६३८ ॥ ( अवतरण )-नायक नायिका दूर दूर खड़े हैं, पर आँखों की सैन से बातचीत एवं सी-विनोद कर के ऐसे आनंद में मग्न हैं, मानो दोन, समीप ही हैं। कोई सखी उनके ग्रानंद को स्वक्षित कर के किसी अन्य सखी से कहती है
| ( अर्थ )-दोनों के दृगों ही में ( इगों की सैनों ही से ) बतरस ( वात का अानंद ) एवं हँसी का विनोद ( हास परिहास की क्रीड़ा ) हो रहा है। [ अतः दोन ] दूर खड़े हुए भी समीप [ होने ] का मोद ( आनंद ) मन में मान लेते हैं ।
१. कोटि ( २ ) । २. दूरि हु ( २ ), दुरो ( ३, ५ ) ।
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बिहारी-रत्नाकर