सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२६३
बिहारी-रत्नाकर

________________

विहारी-रत्नाकर मुख उघारि पिउ लखि रहत रह्यौ न गौ मिस-सैन । फरके ओठ, उठे पुखक, गए उघरि जुरि नैन ।। ६३९ ॥ ( अवतरण )-नायिका विमोदाथै सोने का बहाना कर के, मुँह पर कपड़ा डाल कर और आँखें बंद कर के लेट रही थी । नायक ने यह सोच कर कि देखें तो सही कि यह वास्तव में सो गई है। अथवा मुझे छकाने के लिए बहाना किए हुए है उसका मुंह खोल कर देखा । नायक के ऐसा करने पर नायिका से बहाने की निद्रा में रहा ने गया। इसी विनोद का वर्णन सखी सखी से करती है | ( अर्थ )-[ उसका ] मुख खोल कर प्रियतम के देख रहने पर [ उससे ] 'भिस-सैन' ( बहाने की नींद ) मैं रहा नहीं गया । [उसके ] ओठ फड़क उठे, पुलक ( रोमांच ) उठ आए, [ एवं ] नयन खुल कर [ प्रियतम के नयनों से जुड़ ( मिल ) गए । --- - --- पिय-मन रुचि-लैबौ कठिनु, तन-रुचि होहुँ सिँगार । लाख करो, आँखि न बढ़ें, बढ़े बढ़ाएँ बार ।। ६४० ।। ( अवतरण )-किसी नासमझ राजा अथवा धनी के विषय में कोई गुणी, किसी अनभिज्ञ अथवा नपुंसक पर अन्योक्कि कर के, कहता है ( अर्थ )-प्रिय (प्रियतम) के मन में रुचि (चाह) का होना कठिन है (अर्थात् हमारे प्रभुजी के मन में हमारा अदर होना दुस्तर है ), तन की शोभा श्रृंगार-द्वारा [चाहे कितनी ही ] बढ़ जाय ( अर्थात् हम गुणों से भूषित हो कर चाहे कितने ही श्रेष्ठ हो जायँ), [क्योंकि कोई ] लाख ( यत्न ] करो, [ पर ] आँखें नहीं बढ़त ( अर्थात् प्रभुजी की आँखों में गुण-ग्राहकता तथा उदारता नहीं बढ़ सकती ) बाल बढ़ाने से [ भले ही ] वर्दै ( अर्थात् हमारे श्रम करने से हमारे गुण माहे कितने ही ब ) ॥ यह अन्योक़ि वैसी ही है, जैसा यह कि-"का पर करौं सिँगार, पिया मोर धर” ॥ मनमोहन स मौहु करि, हूँ घनस्यामु निहारि । कुंजबिहारी मैं बिहरि, गिरधारी उर धारि ।। ६४१ ।। ( अवतरण )-कोई भक्त महात्मा अपने मन से कहता है कि रे मन, जो कुछ तुझे करना है, वह सब श्रीवृंदावनविहारी ही के संबंध में कर, विना उनके संबंध के को ई क्रिया न कर- . | ( अर्थ )-[रे मन, यदि तुझको किसी पर मोह करना है, तो तु] श्रीमनमोहन से मोह कर [ क्योंकि और जिनने मोहोत्पादक पदार्थ हैं, वे सब अंत को फीके जंचते हैं, पर मनमोहन का मोह सदा चटकीला होता जाता है ], [ यदि तेरी इच्छा शोभा देखने की है, तो ] तु श्रीघनश्याम को देख [ क्योंकि वह शोभा की अवधि हैं, और उनकी शोभा से मन कभी नहीं भरता ], [यदि तेरी लालसा विहार करने की है, तो तु] कुंजविहारी से १. लखि पिय ( ३ ) । २. होउ ( ४ ) ।