पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३०७

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२६४
बिहारी-रत्नाकर


२६४ बिहारी-रत्नाकर विहार कर [ क्योंकि श्रीर विहारों से चित्त को अंत में उपराम हो जाता है, पर उनके नित्य नए विहार चित्त को सदैव उत्साहमय तथा आनंदित बनाए रखते हैं ], [ और यदि तेरी अभिलाषा किसी को हृदय में धारण करने की है, तो तू ] गिरधारी को उर में धर, [ क्योंकि वह परम भक्तवत्सल एवं शरणागत का पालन करने वाले हैं। उन्होंने गोवर्द्धन धारण कर के इंद्र के कोप से व्रजवासियों की रक्षा की है ] ॥ मैं मिसहा सयौ समुझि, मुँहु चुम्यौ ढिग जाइ । हँस्यौ, ग्विसानी, गल गर्छ, रही गैरें लपटाइ ॥ ६४२ ।। ( अवतरण )-नायिका ने कुछ प्रणय-मान किया था। उसके न मानने पर नायक सोने का बहाना कर के लेट रहा । नायिका ने, उसका सोया समझ कर और यह सोच कर कि मैं मान भी न छ।हैं और मुख-चुंबन का सुख भी प्राप्त कर लँ, पास जा कर, उसका मुँह चूमा । नायक बहाने से तो सोया ही था, बस फिर उसके मुंह चूमन पर, यह सोच कर कि कहाँ तो यह बुलाए नहीं बोलती थी और कहाँ मुंह चूम रही है, हँस पड़ा, जिससे नायिका खिसिया गई । तब नायक ने उसके गले में गन्नवहीं डाल दी, और नायिका भी उससे लिपट गई । यही वृत्तांत नायिका अपनी किसी अंतरंगिनी सखी से कहती है-- | ( अ )-[ हे सखी ! कल रात के वड़ विलक्षण क्रीड़ा हुई ] मैंने , [ उस ] ‘मिसहा' ( बहाना करने वाले, छली ) के साया हुआ समझ, पास जा कर [उसका ] मुंह चूमा । [ मेरे मुंह चूमते ही वह ] हंस पड़ा,[जससे म] खिसिया गई ( लजित हो गई ),[ क्योंकि कहाँ तो मैं उसके मनाने से नहीं मानी थी, और कहाँ मैने स्वयं उसके पास जा कर उसका मुंह चूमर । मेरे खिसियाने पर उसने मेरा ] गला पकड़ लिया ( मुझे आश्वासन देने के निमित्त गलवाई डाल दी ), [ तव में, अपना खिसियानपन मिटाने के निमित्त, उसके ] गले से लिपट रही ।। नीठि नीठि उठि बैठ हूँ प्यौ प्यारी परभात । दोऊ नद भरें खरें, गर्दै लागि, गिरि जात ॥ ६४३ ॥ ( अवतरण )-राप्ति की रति-क्रीड़ा से भ्रमित दंपति के प्रातःकाल जागने के दृश्य का वर्णन सखी सखी से करती है | ( अर्थ )-[ आलस्य के कारण ] प्रातःकाल नीठि नीठि ( किसी न किसी प्रकार) उठ बैठ कर भी प्रियतम [ तथा ] प्रियतमा, दोनों भली भाँति नींद से भरे हुए होने के कारण [ परस्पर ] गले लग कर [ फिर शय्या पर ] गिर जाते हैं (दुखक पड़ते हैं ) ॥ १. समभि ( ३, ५ ) । २. ३ ( २ )। ३. गले ( ५ ) ।