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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३१४

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बिहारी-रत्नाकर


इस दोहे मेँ कवि किसी पात्र मेँ उबाले जाते हुए जन की व्यवस्था दृष्टि मेँ रख कर नायिका के बहते हुए आँशुओँ का वर्णन करता है। अब जब अग्नि से तप्त हो कर दबलता है, तो वाष्प-स्वरूप हो कर पात्र के डकने मेँ जा लगता है, और फिर उसकी बारी पर से हो कर उसके पेटे पर टपकने लगता है, और यदि अधिक टपकता है, तो पेटे पर न ठहर कर चूल्हे मेँ गिर कर छनछनाता हुआ जल जाता है॥

फिरि सुधि दै, सुधि धाइ प्यौ, इहिँ निरदई निरास।
नई नई बहुरयौ, दई! दई उसासि उसास॥६६०॥

निरास—इस शब्द के यहाँ दो अर्थ लिए गए हैं (१) निराश, अर्थात् आशा-रहित। इस अर्थ में इस शब्द को स्त्रियाँ अब भी कोसने की रीति पर 'निरसिया' रूप से प्रयुक्त करती हैँ, और इसी रीति पर इसका प्रयोग इस दोहे मेँ हुआ है। (२) नीरअशन अर्थात् नीर से जीवन-निर्वाह करने वाला, अथवा नीरआश अर्थात् नीर की आशा, प्रतीक्षा, करने वाला। इन दोनोँ व्युत्पत्तियोँ से इसका अर्थ पपीहा ग्रहण किया गया है। पर इन दोनोँ व्युत्पत्तियोँ मेँ 'नी' की दीर्घ 'ई' को हस्व करना पड़ता है। इस प्रकार का स्वरोँ का हेर फेर प्राकृत तथा अपभ्रंश के लिए कोई अनुचित व्यापार नहीँ है, विशेषतः बंदरोँ मेँ। इन दोनोँ अर्थोँ मेँ से पहिला अर्थ दूसरे अर्थ, अर्थात् पपीहा, का विशेषण है। ऐसा ही प्रयोग बिहारी ने ९० अंक के दोहे मेँ भी चिहुटिनी' शब्द का किया है।

(अवतरण)—नायिका अपनी वियोग-व्यथा मैँ बेसुध पड़ी हुई थी, जिससे उसको वेदना का अनुभव नहीँ होता था, और उसकी उसासेँ मंद पड़ गई थीँ। इतने ही मेँ पपीहा पीउ पीउ बोल उठा, जिसके हौरे से बह चैतन्य हो गई, और पीउ पीउ शब्द से उसके हृदय मेँ प्रियतम की सुधि जाग उठी, जिससे विरह-व्यथा फिर व्याप्त हो गई, और उसासेँ उभर आईँ। उसकी यही दशा। कोई सखी किसी अन्य सखी से कहती है:—

(अर्थ)—[यह बेचारी वियोगिनी तो अपने दुःख से बेसुध पड़ी हुई थी, पर] इस निर्दयी 'निरास' (अभागे पपीहा) ने [पीउ पीउ बोल कर अपने हौरे से उसको] फिर से सुधि (चैतन्यता) दे कर, [और पीउ पीउ शब्द से प्रियत की सुधि (स्मृति) दिला कर, हे दैव! नई हुई (नमित, मंद पड़ी हुई) उलाल 'बहुरयौ' (फिर भी) नई (नूतन, नए सिरे से) उसास दी (उभार दी)॥

समै-पलट[] पलटै प्रकृति, को न तजै निज चाल।
भौ अकरुन करुनाकरौ इहिँ कपूत कलिकाल॥६६१॥

कपूत—भाषा मेँ 'कपूत' शब्द 'कुपुत्र' के अर्थ मेँ प्रयुक्त होता है। पर इस दोहे में यह शब्द 'कुपुत्र' का अपभ्रंश नहीँ प्रतीत होता, क्योँकि 'कलिकाल' के निमित कुपुत्र विशेषण कुछ विशेष चिपकता हुआ नहीँ है। अतः इसके दो अर्थ यहाँ हो सकते हैँ—एक तो वह जो लाला भगवानदीनजी ने किया है, अर्थात् 'कु-पूत' (बुरे प्रकार से पवित्र, अर्थात् अपवित्र और दूसरा दुष्प्रकृति। 'प्रकृति' शब्द का


  1. पलटि (२, ३)।