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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर ( अनतरण )-नायिका की उक्कि अंतरंगिनी सखी से ( अर्थ )-[ हे सखी, मैं क्या करूँ, मेरी ] इन दुःखिनी आँखों के लिए सुख सिरजा ही ( बनाया ही ) नहीं गया है ; [ इन बेचारियों से ] 'देखें' ( देखने पर, अर्थात् नायक के दृष्टिगोचर होने पर ) [ लजावेश ] देखते ही नहीं बनता, [ और ] 'अनदेखें (न देखने से, अर्थात् नायक के दृष्टिगोचर न होने पर ) [ये देखने की लालसा से ] व्याकुल होती हैं ।। लगी अनलगी सी जु बिधि करी खरी कटि खीन । किए मनौ बैं' ही कसरे कुच, नितंब अति पनि ।। ६६४ ॥ ( अवतरण )-सखी नायक से नायिका की कटि की क्षीणता तथा कुच और नितंब की पीनता की प्रशंसा करती है कि जितनी उसकी कटि क्षीण है, उतने ही उसके कुच तथा नितंब पनि हैं, अर्थात् उसकी कटि की क्षीणता तथा कुच र नितंब को पीनता यथायोग्य बनाई गई हैं ( अर्थ )-[उसकी ] कटि जो विधि ( ब्रह्मा ) ने लगा अनलगी सी ( उनके शरीर में लगी हुई अर्थात् विद्यमान है अथवा नहीं लगी हुई अर्थात् अविद्यमान है, इस बात में संदेह उपजाती हुई सी ) खरी ( अति ) क्षीण ( पतली ) वनाई, [ सो ] माना उन्हीं कसरों” ( कमिया, कटि में जो सामजी केम लगी, उन्हीं बचत ) से कुत्र [ और ] नितंब अति पान ( बड़े ) किए ( बनाए ) ॥


- -- छिनकु उघारति, छिनु छुवति, राखत छिनकु छिपाइ ।

सवु दिनु पिय-वंडित अधर दरपैन देखेंत जाइ ।। ६६५ ॥ ( अवतरण )-रात्रि को चुंबन-समय नायिका के अधर पर नायक का दंतक्षत लग गया है। नायिका प्रेम तथा गर्व के कारण उस क्षत जगे हुए अधर को दर्पण देख देख कर कभी तो खा क्षती है, कभी छूती है, और कभी छिपा लेती है। देखने तथा छुने से उसके दो अभिप्राय हैं-प्रथम तो प्रियतम के चिह्न को देख तथा स्पर्श कर के मुदित होना, श्रार दूसरे माख, तथा सपत्नियाँ का ध्यान उस ओर आकर्षित करना, जिसमें कि वे जानें कि प्रितम रात को इसके साथ रहा है । छिपा लेने से वह अपनी खजा व्यंजित करती है, जिससे देखने वालियाँ को यह निश्चित हो जाय कि उसके अधर पर यह क्षत प्रियतम के दाँत ही का है, क्योंकि यदि ऐसा न होता, तो इसके इसे छिपाने की कोई आवश्यकता न थी। सखा-वचन सखी से ( अर्थ )[ हे सखी, यह तो प्रियतम के प्रेम में ऐसी मग्न और इतराई हुई है कि इसका ] सारा दिन प्रियतम-द्वारा खंडित (काटे हुए) अधर ( नीचे के आठ ) को दर्पण में देखते हुए [ बीत ] जाता है। [ यह दर्पण देख देख कर ] क्षण भर [ तो उसको ] खोलती है, क्षण भर छूती है, [ और फिर ] क्षण भर छिपा रखती है [वस, इन्हीं कामों में लगी रहती है ] ॥ १. मैं ( २ ), वें ( ३ ), वे ( ४, ५ ) । २. कसरि ( २ ) । ३. दर्पन ( २ ) । ४. देखत ( ३, ५ ) ।