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२४ विहारी-रत्नाकर मुंह पवारि, मुड़हरु भिजे, सीस सजल कर छाइ । मौरु उचै चूंटेनु नैं नारि सरोवर न्हाइ ॥ ६३६ ॥ ( अवतरण )-नायिका के स्नान करते समय की चेष्टा नायक अपने किसी अंतरंग सखा को दिखलाता हुअा कहता है ( अर्थ )-[देखे, वह] नारी मुंह धेा कर, मुड़हर ( साड़ी अथवा ओढ़नी का वह भाग, जो सिर पर रहता है ) भिगा कर, सिर पर सजल ( जल-समेत ) हाथों को छुआ कर [ और ] 'मरु' ( मौलि, मस्तक ) ऊँचा कर के [ कैसी शोभा से ] घुटनों से ( घुटनों के वल स्थित हो कर ) सरोवर में नहाता है ।। कोरि जतन कोऊ करी, तन की तपने न जाइ । जौ ल भीजे चीर ले रहै न प्य लपटाइ ॥ ३६७ ।। ( अवतरण )-विरह से उत्तप्त प्रौढ़। नायिका का वचन सखी से ( अर्थ )-[ हे सखी, ] कई करोड़ यत्न किया करा, [ पर मेरे ] शरीर की [ कामजनित ] तपन [ तब तक ] जाने वाली नहीं, जब तक भीगे हुए वस्त्र की भाँति प्रियतम [ मुझसे ] लिपट नहीं रहता ( रहेगा ) ॥ | भीगा हुअा वस्त्र शरीर में ऐसा लिपट जाता है कि उसमें और शरीर में भेद नहीं रह जाता, और ऐसा वस्त्र शरीर में लपेट लेने से ठंदक भी पड़ती है । अतः नाविका यह उपमा दोन अभिप्राय से देती है, अर्थात् हृदय को शीतच करने वाला प्रयतम इस प्रकार न लिपट जाय, जैसे गीला कपड़ा उतक पहुँचाता हुआ शरीर में एकमएक हो कर लिपट जाता है ।
---- चटक न छाँड़तु घटत हूँ सज्जन-नेह गंभीरु ।
फीके परै न, बरु फट, रंग्य चोल-सँग चीरु ॥ ६६८।।। बोल-रंग-चाल एक प्रकार की लकड़ी होती है, जिसे ग्रेटा कर लाल रंग निकाला जाता है। इस रंग मैं कुछ लाख का रस तथा तेल इत्यादि मिला कर पका रंग बनाया जाता है, जिसको चाल का रंग कहते हैं । इसी रंग से खाया इत्यादि रंगे जाते हैं । इस रंग में तेल का भी मज़ होता है, इसी लिए कवि ने प्रेम, अनुराग इत्यादि न कह कर नहु ( १. अनुराग । ३. तल ) शब्द रक्खा है ।। ( अवतरण ) - कवि की प्रारताविक उहि है ( अर्थ )--सजन का गंभीर ( गहरा, पक्का ) स्नेह ( १. प्रेम । २. तेल ) [ स्नेह-पत्र मित्र के ] घरते हुए भी ( हीन अवस्था को प्राप्त होते हुए भी, अर्थात् निर्धन, निर्बल होते हुए भी ) [ अपनी ] चटक ( प्रेम के रंग के उत्कर्पता ) नहीं छोड़ता ( अर्थात् मित्र की होन दशा में भी सज़न का प्रेम उस पर वैसा ही चटक रंग का रहता है ), [ जेसे ] चोल १. मुंहतक ( ३, ५ ) । २. मन ( २ ) । ३. तपति ( २, ३ ) । ४. पिउ ( २ ) । ५. छोड़नु ( २, ४ ) ।