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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३२

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प्राक्कथन अथवा अन्य स्थानों से उठा कर रखने का प्रयत्न किया । इस कार्य में, जात होता है, उन्हेंने ऐसे अधिकांश दो को तो अपनी चौपतिया के पाश्र्व भाग में, जिन स्थानों पर ऐसे दोहे स्थापित होने चाहिए थे, उनके सम्मुख लिख दिया, और किसी किसी दोहे के सामने केवल वह संख्या लिख दी, जिस पर उस दोहे का रखन' अभीष्ट था । चौपतिया की प्रतिलिपि उतारने वाले ने उन दोहों को, जे पार्श्व भाग पर लिखे थे, बिहारी का अभिप्राय न समझ कर, कहाँ कहाँ उचित स्थान से दो एक संख्या आगे पीछे लिख दिया, और जिन दोहों के सामने थे अंक मात्र लिखे थे, जिन पर वे दोहे जाने चाहिए थे, उनको प्रमाद से जहाँ का तहाँ रहने दिया, अर्थात् अभीष्ट स्थान पर नहीं रक्खा । इन चुक में पहली चुक का कारण तो यह अनुमानित हो सकता है कि पार्श्व भाग में लिखे हुए दोहे एक ही दोहे के सामने नहीं समा सकते, वरन् तीन चार दोहा के सामने पड़ जाते हैं, अतः ऐसे किसी लेखक का, जिसे इस बात का भान न रहा हो कि पाश्र्व भाग पर ये दोहे किस स्थान पर रखने के अभिप्राय से लिख दिए गए हैं, उनका उचित अंकों के दो चार अंक अगे पीछे समावेश कर देना पूर्णतया संभव और स्वाभाविक ही है । ऐसी चूक के उदाहरण ११, ४१, ६१, ७१, ६१ इत्यादि अंकों के दोहों में दृष्टिगोचर होते हैं, जो ३ तथा ५-संख्यक पुस्तक में १०, ४२ ६२, ६६, ८७ इत्यादि अंक पर लिखे मिलते हैं। दूसरी चूक का कारण लेखक का पाश्र्वअंकों पर ध्यान न देना, या उनका अभिप्राय न समझना अथवा, यदि कोई दोहा पछे से अगे आया है त, उसे पीछे वाले दहे के सामने के अंक का, उचित स्थान के आसपास के दोहाँ के लिखते समय, न देखना प्रतीत होता है । ऐसे चूक के उदाहरण १२१, १३१, १८१, २६१४०१ इत्यादि अंकों के दोहाँ में दिखाई देते हैं, जे ३ तथा ५ अंकों की पुस्तकों में ५२, ११७, १६२, २१६, ३६८ इत्यादि अंकों पर हैं ॥ | बिहारी-रत्नाकर में दो की संख्या । मानसिंह वाली टीका अर्थात् हमारी तीसरी प्राचीन प्रति मैं ७१३ देहे मिलते हैं, और अंत में टीकाकार ने स्पष्ट रूप से लिख भी दिया है कि सतसई में ७१३ दोहे हैं । रत्नकुँवर वाली पुस्तक अर्थात् पाँचवाँ प्राचीन प्रति में भी ये ही ७१३ दोहे देखने में आते हैं । बिहारी के शिष्य वाली प्रति अर्थात् दूसरी प्राचीन प्रति में इन ७१३ दोहों में से ११७, ३०१, ६०४ और ७१३ अंकों के दोहे नहीं हैं ।पर इनमें से ११७तथा ३०१ अंकों के दोहे ते अन्य प्राचीन प्रतियों में विद्यमान है, और ६०४ अंक वाला देह तीसरी, चौथी तथा पाँचवी पुस्तकों में उपलब्ध है, और पहला प्रति में केवल ४६३ तक दो हैं, अतः उसमें भी इसकी उपस्थिति मान लेना असंगत नहीं है । अब रहा ७१३ अंक वाला दोहा । यह चौथे अंक की पुस्तक में भी नहीं है। पर कृष्णलाल की गद्य टका वाली प्रति में, जिसका कथन ऊपर हो चुका है, यह ७१३ ही अंक पर पाया जाता है, अतः इसकी उपस्थिति दो सटीक प्रतियों तथा एक मूल प्रति में है। इसके अतिरिक्त पहले अंक की प्रति में इसकी उपस्थिति तथा अनुपस्थिति, दोनों संदिग्ध हो । सटीक पुस्तके सामान्यतः मूल पुस्तकों से अधिक प्रामाणिक मानी जाती हैं, अतः इस ७१३ अंक वाले दोहे को बिहारी-कृत मानना समीचीन प्रतीत