पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३१

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बिहारी-रत्नाकर जद्यपि है सोभा सहज मुकतनि, तऊ सु देखि । गुहै” ठौर की ठौर तैलर मैं” होति बिसेखि ॥ बिहारी के अपनी सतसई को इसी क्रम में बिना किसी विशेष क्रम लगाएछोड़े जाने के कारण अनेक कवियों तथा टीकाकारों ने अपने अपने मत के अनुसार उसके क्रम बाँध लिए। इनका विवरण भूमिका में यथास्थान होगा। | बिहारी-रत्नाकर में इन्हीं पाँच प्रतियों के आधार पर दोहों के पूर्वापर क्रम, पाठ तथा संख्या का निर्धारण किया गया है। इसका विशेष विवरण भी भूमिका में दिया जायगा । उल्लेख की सरलता के अभिप्राय से ये पुस्तकें १, २ इत्यादि संख्याओं के नाम से विशिष्ट कर दी गई है । रामसिंह जी वाली पुस्तक के निमित्त १, बिहारी के शिष्य वाली प्रति के निमित्त २, मानसिंह जी की टीका वाली पुस्तक के निमित्त ३, गिरधरलाल जी वाली प्रति के निमित्त ४ और रत्नकुवरि जी वाली प्रति के निमित्त ५ संख्या मानी है। बिहारी-रत्नाकर में, पाद-टिप्पणियों में, इन्हीं संख्याओं का प्राकेट में उपयोग किया गया है। बिहारी-रत्नाकर का क्रम | जैसा ऊपर कहा जा चुका है, हमारी पाँचों प्राचीन पुस्तकों में दोहों का पूर्वापर क्रम प्रायः एक ही सा है—केवल दो चार दोहों के स्थानों में कुछ भेद पाया जाता हैं। ३ तथा ५ अंकों वाली पुस्तकों के क्रम तथा संख्या सर्वथा एक ही हैं, और १ अंक की पुस्तक में जो ४९३ दोहे हैं, उनका पूर्वापर क्रभ भी उनके अनुसार ही है। अतः बिहारीरत्नाकर के दोहों की संख्या तथा क्रम के निमित्त तृतीय तथा पंचम पुस्तकें ही आधारभूत मानी गई हैं । परंतु प्राचीन प्रतियों से बिहारी का अपने क्रम में दस दस अथवा बीस बीस पर एक एक भगवत्-संबंधी अथवा नीति-विषयक दोहा रखना अभीष्ट समझ कर, जहाँ जहाँ इन स्थानों से उक्न प्रकार के दोहे कुछ विचलित मिले, वहाँ वहाँ उनके स्थान, अपनी बुद्धि के अनुसार, हमने ठीक कर दिए हैं । किंतु संभव है, जिस स्थान पर हमने कहीं दूर का कोई दोहा स्थापित किया है, वहाँ के निमित्त बिहारी ने कोई अन्य दोहा सोचा हो । अतएव यह दिखलाने के nिए कि किस किस दोई में स्थान-परिवर्तन किया गया है, हमने पहले उपस्करण में एक कोष्ठ तीसरी पुस्तक ( मानसिंह जी की टीका घाली प्रति ) का भी रख दिया है ।। । यद्यपि बिहारी ने सतसई में दोहों का पूर्वापर क्रम तो वही रहने दिया, जिस क्रम से उनकी रचना हुई थी, तथापि, जैसा हम ऊपर कई आए हैं, प्राचनि पुस्तकों के देखने से भासित होता है कि उनके हृदय में इतना क्रम स्थापित करने की अभिलाषा अवश्य थी कि प्रति दस दस अथवा बीस बीस दोहों के पश्चात् एक एक भगवत्-संबंधी अथवा नीतिविषयक बोहा रहे । बनाते समय भी उन्होंने इस बात पर ध्यान रखा था, और रचना-ल में, भाचों के उद्गार के कारण, जहाँ जहाँ वे इस बात को न कर सके, वहाँ वहाँ उन्होंने उसकी पूर्ति ग्रंथ समाप्त होने पर कर दी, अर्थात् जहाँ जहाँ दस दस अथवा बीस बीस पर भगवत्-संबंधी अथवा नीति-विषयक दोहे नहीं पड़े, वहाँ वहाँ नए दोहे बना कर