सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३२६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।
२८३
बिहारी-रत्नाकर

________________

विहारी-रत्नाकर २८३ ( अवतरण )—मान ठानने के समय सिर्दी गहने उतार डालती और मैले कुवैले वन्न धारण कर लेती हैं। पर नासिका को शून्य रखना सौभाग्यवती फ्यिाँ मे वर्जित है, अतः नाक के बेध मैं, मान के समय भी, वे सक अथवा तवंग-फूल इत्यादि डाल लेती हैं। इस दोहे की मानिनी नायिका ने लवंगफल डाल रक्खा है । नायक शठ है । वह मीठी बातें कर के अपना अपराध छिपाना तथा नायिका का मान छुड़ाना चाहता है। वह नायिका पर यह नहीं विदित होने देना चाहता कि मैं तेरा मान ठानना समझ गया हूँ। वह उसके जवंग धारण करने को मानो शोभार्थ समझता है, और उसकी नाक के चढ़ी हुई होने का कारण उस जवंग-फूज की पड़पड़ाहट मानता है । इस तरह जान बूझ कर अनजान बनने से उसका अभिप्राय यह है कि नायिका यह समझे कि यदि यह अपराधी होता, तो मेरे लवंग धारण करने और नाक चढ़ाने पर डर जाता, और इस प्रकार निःशंक हो कर बातें न करता, क्योंकि चोर का वित्त सदा खटकता रहता है। इन्हीं विचारों से नायक नायिका से कहता है-- ( अर्थ )-[ हे प्यारी, ] यद्यपि [ यह ] लवंग-फूल [ तेरी नासा में ] ललित ( सुंदर ) भी [ लगता ] है, तथापि तु [ इसको ] 'इक ऑक' ( निश्चय कर के ) न पहन ( मत पहना कर ), [क्योंकि इसके पहनने से इसकी कार के कारण तेरी कोमल ] नाक चढ़ी सी रहती है, [ जिससे मेरे मन में ] सदा शंका ( अर्थात् तरे मान ठाने हुए होने की भीति ) बढ़ी ही रहती है ॥ बेरजें दूनी हठ चढ़, ना सकुचै, न सकाइ । टूटते कटि दुमची-मच, लचक लचक बचि जाइ ।। ६६ ।। दूनी = गौर भी अधिक । हठ= हठ पर ॥ चढ़ चढ़ता है । हमारी चार प्राचीन पुस्तक में 'चड़े के स्थान पर ‘बढे पाठ है, और एक-संख्यक पुस्तक में यह दोहा है ही नहीं। एक बहुत प्राचीन सटीक सतसई में, जो कि हमको अब मिली है, 'च' पाठ मिलता है । इसके अतिरिक्त और सब सटीक ग्रंथों में भी चढे ही पाठ है । अर्थ के विचार से भी चढ़ पाठ अच्छा है, अतः इस संस्करण में वही पाठ रक्खा गया है । | दुमची-झूले पर खड़े हो कर कटि को लचका कर पैग बढ़ाने के निमित्त झोंका देने की क्रिया को दुमची कहते हैं । ( अवतरण )-अज्ञातयौवना नायिका, उमंग से पैग मार मार कर, झूल रही है, और हितकारिणी सखी के वारण करने पर न तो, अज्ञातयौवना होने के कारण, संकुचित होती है, और न, झने के उत्साह के कारण, डरती ही है। प्रत्युत वारस करने पर और भी उमंग से हठ-पूर्वक दुमची देती है, जैसा कि थोड़ी अवस्था वाले मनुष्य का प्रायः स्वभाव होता है कि के किसी कार्य से वर्जित किए जाने पर हठात्, और भी विशेषता से उस कार्य में प्रवृत्त होते हैं। कह सखी उस्की यह ब्यवस्था तथा उसकी कटि का सौ कुमार्य तथा वचनापन नायक से वर्णित कर के उसको उस समय की शोभा देखने के निमित्त उस्सुइ किया चाहती है ( अर्थ )-[ उसकी इस समय की बेखटक झूला झूलने की स्वाभाविक शोभा देखने ही योग्य है । वह ] न [ तो मचकी देने में अंगों के खुल जान इत्यादि से ] १. हूँ बरजें दुनी बढ़ ( ३, ५) । २. टूटति ( ३, ४ ), दुटित ( ५ ) । ३. मचिकि(३), माचिक ( ५ ) ।