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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३२५

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२८२
बिहारी-रत्नाकर

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२८२ बिहारी-रत्नाकर लिपट रही है ), [ और ] खींच कर हाथ को [ तो ] छुड़ाती है (अर्थात् हाथ छुड़ाने के व्याज से खचातानी करती है), [ पर उस खचातानी में स्वयं ] खिंची हुई [ शनैः शनैः ] आगे आती जाती है ( नायक की ओर खिसकती आती है) ॥ । इस दोहे की नायिका की क्रियाएँ बड़ी चातुरी की है। उसका सिँच कर नायक के समीपतर होते जाना वैसा ही है, जैसा किसी बड़ी नाव मैं लंबी रस्सी से बँधी हुई किसी छोटी नाव का, उस पर के मनुष्य द्वारा रस्सी को छुड़ाने के निमित्त खींचने पर, बड़ी नाव के समीप होते जाना ॥ रुक्य सॉकरें कुंज-मैग, करतु झाझि, झकुराते । मंद मंद मारुत-तुरंग खुदंतु अवैतु जातुं ॥ ६८४ ।। म्य = अवरुद्ध हुअा, समन कुंज तथा संकीर्ण मार्ग के कारण नायिका को बचा कर निकलने का दांव न पाना हुया । यदि किसी बहु पतलं गली में केाई खड़ा हो, ग्रोर उसमें कोई विगल घोड़ा खुद करता हुआ ग्रावे (य, तो वह उसका टापा से अवश्य है। भला भति कुचल जायगा, क्योंकि स्थान की संकीर्णता के कारण न नं। 3मको है। वचने का ठेर मिल सकता है, अंर न घाई है। के उसे बना कर ग्राने जाने का मार्ग । यही वान नायिका अपने विषय में कहा है कि गाय के संकीर्ण होने के कारण इधर उधर स्थान न पाता हुआ पवन नुरग र जाता * युदं डालता है । संकरं = शंकर ।। झाझ = झांझ, झैझ, झंझट, या यापन । यदि सामान्यतः दाना हुअा घाइा कि का राता हुआ निकले जाय, तो उसके ऊपर दो ही एक टाप पन्ने का संगावना होता है । पर यदि वह घोड़ा के शोर वृंद करता हुया जाय, तो उस पर टापा का प्रहार बहुत था वा प्रया होगा | पवन रूप घाई का २६झ करते हुए आना जाना कह कर नायिका उसके द्वारा अपना भली भाति विदनित हाना यजित करती है ॥ झकातु = यह क्रिया झोर शब्द से बनी है। इसका ग्र झकेर माता, झूमता इत्यादि हैं । यहां घोड़े के पक्ष में इसका अर्थ ग्रागे के दोन पावों को उठाता और पकना समझना चाहिए ।। खुदतु = कुचलता है, दे डालता है । घोड़े के संबंध से इसका अर्थ यहाँ खुद से रौंद डालता है होगा । इस शब्द का विशेष अर्थ ५४२-संग्यक दोहे की टीका में द्रष्टव्य है । ( अवतरण )-विप्रलब्धा नायिका को, संकेत-निकुंज में नायक को न पाने स, बड़ा ताप हुआ हैं, और सघन कुंज मैं आता जाता शीतल, मंद, सुगंध समीर ऐसा दुःखद लगता है, जैसा घोड़े की टाप से कुचला जाना । अतः वह, उस छ। रूपक वृंद करते हुए घोड़े से कर के. सखी से कहती है ( अ )-[ हे सखी, इस संकेतित सघन निकुज में प्रियतम को न पा कर मुझे बड़ा ही दुःख हो रहा है। ] कुंज के संकीर्ण मार्ग में अवरुद्ध, झैझ करता हुआ नथा बलपूर्वक झोका लेता हुशा पवन रूपी तुरंग मंद मंद आता जाता [ मुझे ] बूंदे (कुचले, विदलित किए ) डालता है ॥ जदपि लैंगि ललितौ, तऊ हूँ न पहिरि इक अाँक ।। सदा साँक बढ़ियै रहै, है चढ़ी सी नाक ॥ ६८५ ॥ १. मैं ( २ ) । २. झाझि ( ४ ) । ३. झोरातु ( २ ), झुकरातु ( ४ ), झकुराति ( ५ ) । ४. श्रृंदनि ( २ ) । ५. ग्रावत ( २, ३, ५)। ६. जात ( ३ ), जाति ( ५ ) | ७. रही ( ३, ५)}