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२८८
बिहारी-रत्नाकर

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२८८ विहारी-रत्नाकर बैल) के पाँव के पड़ते ( पड़ने पर ) [ ही ] समझ पड़ेगी ( ज्ञात हो जायगी ) [ कि ऐसे सन्मान पर गर्व करने का क्या परिणाम होता है ] ॥ । मुहुँ धोवति, एड़ी घसति, हसति, अनगवति तीर । धसति न इंदीवरनयनि कालिंदी कैं नीर ॥ ६६७ ।। अनगवति= अन् + अगवति, अर्थात् अगुवाती नहीं । अगुवाना काई काम करने के निमित्त उद्यत होने, अथवा किसी काम को करने लग जाने, को कहते हैं । व्रज मैं अनगाना अभी तक जान बूझ कर विलंब लगाने के अर्थ में बोला जाता है, जैसे “अरी ! तू अनगाइ कहा रही है, या कामैं करि क्यौं नायें ले।' कई टीकाकारों ने जो 'अनगवति' का अर्थ 'अनंगवती' लिख दिया है, वह सर्वथा अग्राह्य है ॥ इंदीबरनयनि-- नायिका नायक की योर, टकटकी बॉध कर, अपने ग्रंजन-रंजित दृगों से देख रही है, इसी लिए यह विशेषण उसके निमित्त रक्खा गया है । टकटकी बाँध कर देखने से नायिका का अनुराग व्यंजित होता है । ( अवतरण )-नायिका यमुना-स्नान करने आई है। नायक भी वहाँ उपस्थित है। अतः वह मुंह धने इत्यादि के व्याज से तीर पर विलंब लगा रही है, और स्नान करने के निमित्त यमुना में नहीं बैठती, जिसमें पीठ नायक की ओर न हो, और इसी व्याज से उसे नायक को देर तक देखते रहने का अवसर प्राप्त हो । उसकी यह मानसिक व्यवस्था तथा क्रिया-विदग्धता कोई सखी सक्षित कर के किसी अन्य सखी से कहती है| ( अर्थ )-[ देख, यह नायिका कभी तो ] मुंह धोती है, [ कभी ] एड़ी घिसती है, [ और कभी ] हँसती है । [इसी प्रकार चातुरी की अनेक क्रियाएँ कर के ] तीर पर अनगा रही है ( टालमटूल कर रही है, जान बूझ कर देर लगा रही है )। [ यह ] इंदीवरनयनी ( नील कमल के समान अनिमेख नेत्रों वाली ) कालिंदी ( यमुना ) के नीर में नहीं धंसती (पैठती ) ॥ बढ़त निकसि कुष-कोर-रुचि, कढ़त गौर भुजमूल । मनु लुटि गौ लोटनु चढ़त, चटत ऊँचे फूल ॥ ६९८ ॥ कुच-कोर= कुच की नोक अर्थात् ढिपनी ।। लोटनु= उदर की बालियाँ । चटत =नोचते हुए, तोड़ते समय ॥ ( अवतरण )-नायक ने नायिका को किसी वृक्ष की ऊँची डाल में से, हाथ ऊँचा कर के तथा ग्रीवा को पीछे की ओर झुका कर, फल तोड़ते देखा । हाथ ऊँचा करने तथा ग्रीवा को पीछे की ओर झुकाने से उसके कुछ आगे को निकल अाए, एवं अंचल के सरकने से भुजमल तथा उदर कुछ उधर गए । इस अवस्था में उसकी त्रिबजी को देख कर नायक का मन हाथ से जाता रहा । यही व्यवस्था वह नायिका की सखी से कह र उससे मिलने की उत्कंठा व्यंजित करता है | ( अर्थ )-[ उसके ] ऊँचे फूलों को चौंटते समय कुचों की कोरों की शोभा के १. बदति ( ४ )।