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बिहारी-रत्नाकर

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विहारी-रत्नाकर २६१ ( अर्थ )-हे प्राणेश ( प्राणों के ईश ), [ तुम मुझको अब प्यारी कह कर मत संयोधित करो, प्रत्युत ] वामा ( कुटिला), भामा (लड़की), कामिनी ( स्वार्थिनी ) [ इत्यादि। शब्द ] कह कर बोलो ( संबोधित करो)। क्या पावस ऋतु में विदेश चलते समय [ तुम मुझे ] प्यारी कहते खिसियाते नहीं ( लज्जित नहीं होते ) [ कि मेरे हृदय में और तथा मुंह में और है । तुम्हें इस अवसर पर प्यारी कहते अवश्य लज्जित होना चाहिए, क्योंकि प्यार का कोई प्राण लेना नहीं चाहता । पर तुम तो वर्षा ऋतु में विदेश जा रहे हो, जिससे मेरा मरण निश्चित है । अतः तुम्हें इस अवसर पर मुझे कुटिला, लड़ाका, स्वार्थिनी शब्दों से संबोधित करना चाहिए, क्योंकि तुम ऐसी ही तो मुझे समझते हो, तभी तो मेरे प्राण हरण करने वाले कार्य पर उद्यत हो । 'वामा' इत्यादि शब्दों से संबंधित करने से मेरी ओर जो सच्ची भावना तुम्हारे हृदय में है, वही मुख से भी विदित होगी, और तुमको मुंह में और, पेट में और' वाले वन कर लज्जित न होना पड़ेगा ] । उठि, ठकु ठकु एतौ कहा पावस कैं अभिसार । जानि परैगी देखियौ दामिनि घन-अँधियार ॥ ७०४ ॥ ( अवतरण )–नायिका पावस-निशा मैं अभिसार करने के निमित्त कृष्णाभिसारिका के ठाट ठाट रही है, अर्थात् श्याम साड़ी इत्यादि से सुसज्जित हो रही है, जिससे विलंब हो रहा है। अतः दूती, जो उससे शीघ्र अभिसार कराने के निमित्त उत्सुक है, कहती है ( अर्थ )-उठ ( शीघ्र चलने पर उद्यत हो ), पावस के अभिसार में इतने ठकठक ( बखेड़े, विधिवत् कृष्णाभिसारिका के पूरे ठाट ठाटने ) की क्या आवश्यकता है। [ एक तो तूने जो शृंगार कर लिया है, उतना ही बहुत है, और दूसरे चारों ओर ऐसे बादल छाए हुए हैं कि तू ] 'देखियौ' ( देखी जाने पर भी ) [ अपनी दामिनी सी यति के कारण इस ] घन के अंधेरे में बिजली जान पड़ेगी। कैवा आवत इहिँ गली रेहौं चलाइ, चलें न । दरसन की साधे है, सूधे हैं न नैन । ७०५॥ ( अवतरण )-परकीया नायिका नयन भर कर नायक की छवि देखने की अभिलाषा में है, परंतु लज्जा वश डट कर देख नहीं सकतीं-उसकी अभिलापा जी की जी ही मैं रह जाती है। अपनी यही व्यवस्था वह अंतरंगिनी सखी से कहती है | ( अर्थ )-'कैवा' ( कई वार )[ ऐसा होता है कि नायक के ]इस गली में 'अवत' ( आने पर ) [ में अपने नयनों को चला कर (नायक की ओर देखने पर उद्यत कर के) १. देखियों ( २, ३ ) । २. रही ( २ ) । ३. साधे ( २ ), सॉधे ( ३, ५) । ४. रही (२) । ५. होहिं ( ३, ५ ) ।