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बिहारी-रत्नाकर से घिर गए थे] बलक (बलख ) से इस प्रकार [ सकुशल ]निकाला, जिस प्रकार अघासुर के उदर में पड़ने पर गायों [ तथा ] ग्वालों को हरि ( श्रीकृष्णचंद्र ) ने [ निकाला था ]॥ सन् १६४७ ईसवी में शाहजहाँ के आज्ञानुसार औरंगजेब ने, जो कि उस समय दक्खिन का सूबेदार था, बलख़ पर चढ़ाई की थी । उसके साथ मिर्जा राजा जपशाही भी थे। उस चढ़ाई में सफलता प्राप्त नहीं हुई, और शत्रु के अाक्रमण से ऐसी विपत्ति उपस्थित हुई कि औरंगजेब को ऑक्टोवर मास के आरंभ मैं वहाँ से लौटना पड़ा, और वह २७ ऑक्टोबर को काबुज पहुँच गया । पर उसकी सेना मिज़ा राजा जयशाही के साथ पीछे रह गई, जो, बड़ी कठिनता नथा आपत्तियाँ झेलने के परात्, १० नवंबर को काबुज पहुँची । सेना को बर्फ तथा शत्रु से बचा कर निकाल लाने में जयशाही ने बड़ी ही बुद्धिमानी तथा वीरता दिखलाई थी ॥ घर घर तुरकिनि, हिंदुनी देहिँ असीस सराहि ।। पतिनु राखि चादर, चुरी हैं राखी, जयसाहि ॥ ७१२ ॥ ( अवतरण )-यह दोहा तथा इसके पूर्व के दो दहे, ये तीन परस्पर संबद्ध हैं। पहिले (७१२-संख्यक ) दोहे से कवि जयसिंह के शौर्य तथा चातुर्य की सामान्यतः प्रशंसा कर के दूसरे (७११-संख्यक ) से उनके एक विशप अवसर के शोर्य तथा चातुर्म को लक्षित कर के उनकी प्रशंसा करता है, और फिर इस दोहे से, उक्त अवसर विशेष पर के कार्य से प्राणदान पाए हुए तुका तथा हिंदुओं की विधवा होने से बची हुई खियाँ के द्वारा, उनको आशीर्वाद दिलवाता है, क्योंकि ग्रंथ-समाप्ति है, और ऐसे अवसर पर नृप-स्तुति तथा उनके आशीर्वाद देना समीचीन ही है ( अर्थ १ )-हे जयशाही ! [ जब तु अलख से बादशाही सेना बचा कर ले अाया, तो उसमें जो मुसलमान तथा Gिदू मैनिक थे, उनकी स्त्रियाँ विधवा होने से बच गई, अतः ! घर घर तुर्किनियाँ [ तथा ] हिंदुनियाँ [ तरी ] सराहना कर के-[ कि वाह रे !] जयशाही, तूने [ हमारे ] पतियों की रक्षा कर के [ हमारी] चादर [ तथा ] चूड़ी रख ली ( हमको विधवा होने से बचा लिया )-[ तुझको ] असीस ( आशीर्वाद ) देती हैं ॥ ( अर्थ २ )- चलख से निकाल लाने के कारण ] घर घर में तुर्किनियाँ [तथा] हिंदुनियाँ[तुझके] सराह कर असीस देती हैं। क्योंकि उनके] पतियों को बचा कर, हे जयशाही. तून [उनकी] चादर [तथा] चूड़ी रख लीं (उनको विधवा होने से बचा लिया )॥ | विधवा होने पर मुसलमान की स्त्रियाँ चादर तथा हिंदु की स्त्रियाँ चुदा उतार डालती हैं। हुकुमु पाइ जयमाहि कौ, हरि-राधिका-प्रसाद ।। करी बिहारी सतसई भरी अनेक सवाद ॥ ७१३ ॥ ( अवतरण )-ग्रंथ की समाप्ति पर ऊपर लिखे हुए तीन दोहाँ से नृप-स्तुति कर के तथा नृप को आशीर्वाद दिलवा कर अब इस दोह से कवि ग्रंथ निर्माण का कारण, निर्माण कराने वाले का माम, अपना नाम तथा ग्रंथ का नाम विदित अरता है