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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/३३९

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बिहारी-रत्नाकर


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२९६ बिहारी-रत्नाकर | ( अर्थ )-[राजा ] जयशाही को हुक्म पा कर, श्रीहरि ( श्रीकृष्णचंद्र )[ तथा ] श्रीराधिकाजी के प्रसाद ( प्रसन्नता, कृपा ) से, [ मुझ] बिहारी [ नामक कषि ] मे [ यह ] अनेक सवाद (रस ) से भरी हुई सतसई [ नाम को पुस्तक ] करी ( बनाई, रची ) ॥ | यह दोहा हमारी पाँच प्राचीन पुस्तकों में से केवल दो मैं, अर्थात् सोसरी तथा पाँच पुस्तक *, है, और वास्तव में ये ही दोन पुस्तकें पूरी और माननीय भी हैं। इनमें से तीसरी पुस्तक, मानसिंह की टीका-सहित, संवत् १७७२ (वैशाख-कृष्ण-द्वितीया ) की लिखी हुई है। मानसिंह ने इस दोहे की टीका में लिखा है *ि बिहारी ने सात सौ तेरह दोहे बनाए हैं। यह दोहा ७१३ के अंतर्गत भी आ जाता है, और मानसिंह की टीका भी इस पर है, अतः इसके विरारी-कृत होने में संशय नहीं, यद्यपि, हरिप्रकाश तथा लालचंद्रिका के अतिरिक्त, अन्य किसी टीकाकार के ग्रंथ *, अथवा विना टीका के किसी हस्तलिखित ग्रंथ मैं, यह हमको नहीं मिला। ग्रह ऋघि निधि ब्रजचंद पाइ अनुकूल बरष बर । ऋषिपंचमी पुनीत, सुक्न भादों, रबि बासर ।। शोभा लखत नसीम-बाग, कसमीर-कुधर की । करि रचना यह रुचिर ‘बिहारी-रत्नाकर' की ।। निज छप्पनवें बयग्रंथि-दिन हरष्यौ रतनाकर-हियौ । श्रीजगदंबा-अवधेश्वरी-करकमलनि अर्पित कियौ ।