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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/५५

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बिहारी-रत्नाकर

झाला अथवा पीपलपत्ता कहते हैँ, लिखा है, और इसी अर्थ के अनुसार दोहे का भी अर्थ किया है। कृष्ण कवि ने इसका अर्थ और कोई भूषण—कदाचित् उरबसी—माना है। ईसवी ख़ाँ ने इसका अर्थ उरबसी किया है, और यह भी लिखा है कि "जो नायिका को कहैँ झीने पट मेँ ऐसी झलमले है, तो भी हो सकै है।" हमारी समझ मेँ 'झुलमुली' का अर्थ झुलमुलाती हुई, अर्थात् झीने पट से ढँपे रहने के कारण कभी झलकती और कभी छिप जाती हुई कर के इसको 'ओप' शब्द का विशेषण मानना चाहिए। १८६ तथा ५३८ अंकोँ के दोहा मैँ जो 'झलमलै' शब्द क्रिया रूप से पड़ा है, उसी शब्द से यह 'झुलमुली' शब्द विशेषण बना है। झलमलाना, झिलमिलाना तथा झुलमुलाना, ये तीनोँ शब्द वस्तुतः एक ही शब्द के रूपाँतर मात्र हैँ, और थोड़े थोड़े अर्थ-भेद से प्रयुक्त होते हैँ॥ लसति = विलास करती हैँ, अर्थात् मंद मंद हिलती हुई सुशोभित होती हैँ॥

(अवतरण)—झीने पट मेँ से फूट कर निकलती हुई नायिका के शरीर की झलक पर रीझ कर नायक स्वगत कहता है—

(अर्थ)—[अहा! इसकी] झुलमुली (झुलमुलाती हुई) अपार ओप झीने पट मेँ से [ऐसी] झलकती है, मानोँ कल्पवृक्ष की पल्लव सहित डार समुद्र मेँ विलास कर रही है॥

'सपल्लव डार' इसलिए कहा है कि हाथोँ, पावाँ, ओठाँ तथा कानोँ की उपमा पल्लवोँ से दी जाती है॥

डारे ठोड़ी-गाड़, गहि नैन-बटोही, मारि।
चिलक-चौँध मैँ रूप-ठग, हाँसी फाँसी डारि॥१७॥

ठोड़ी-गाढ़ = ठुट्टी का गड़हा॥ बटोही = बाट चलने वाले, पथिक॥ चिलक = चमक॥ चौँधपथिकों को जो किसी किसी रात को, अधिक रात्रि रहने पर भी, तारोँ इत्यादि के प्रकाश के कारण सबेरा होता सा प्रतीत होने लगता हैँ, और जिससे चौँधिया कर, अर्थात् धोखा खा कर, वे उसी समय मार्ग चल पड़ते हैँ, उस धोखा देने वाले प्रकाश को चौँधा अथवा चौँध, अर्थात् चमक से आँखोँ को अँध करने वाला, भ्रम मैं डालने वाला, कहते हैँ। इसी का नाम फ़ारसी भाषा मेँ 'सुबूहे काज़िब' है। ऐसे चौँधे से धोखा खा कर जब पथिक अधिक रात्रि रहने पर भी चल पड़ते है, तो ठगोँ की बन आती है। वे उनको फाँसी डाल कर मार डालते और किसी गड़हे मेँ डाल देते हैँ।

(अवतरण)—नायक के नेत्र नायका के शरीर की शोभा देखते देखते मोहित हो कर उसकी ठुड्ढी के गढ़हे मेँ पड़ गए हैँ, और अब वहाँ से शोभाधिक्स के कारण नहीँ टल पाते। अपने नयनोँ की यह व्यवस्था नायक, नायिका की शोभा का वर्णन करता हुआ, स्वागत कहता है—

(अर्थ)—[उसके] सौंदर्य-रूपी ठग ने चिलक-रूपी चौँध मेँ [मेरे] नयन-रूपी पथिकोँ को घेर कर, हँसी-रूपी फाँसी डाल, मार कर ठोड़ी के गड़हे में डाल दिया [एवं वे बेचारे अब वहीँ पड़े हुए हैँ]॥

इस दोहे के भाव से २६ वेँ अंक के दोहे का भाव बहुत मिलता है॥

कीनैँ हूँ[] कोरिक जतन अब कहि काढ़े कौनु।
भो मन मोहन-रूपु[] मिलि पानी मैँ कौ लौनु॥१८॥

मन = मानस। यह शब्द यहाँ श्लिष्ट है। इसका पहिला अर्थ मन और दूसरा अर्थ मान-


  1. ऊ (४, ५)।
  2. रूप (१, २, ४, ५)।