पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/५५

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बिहारी-रत्नाकर

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१२ बिहारी-रत्नाकर भाखा अथवा पीपलपत्ता कहते हैं, लिखा है, और इसी अर्थ के अनुसार दोहे का भी अर्थ किया है । कृष्ण कवि ने इसका अर्थ और कोई भूषण-कदाचित् उरबसी-माना है । ईसवी खाँ ने इसका अर्थ उरबसी किया है, और यह भी लिखा है कि “जो नायिका को कहँ झीने पट में ऐसी झलमलै है, तो भी हो सके है । हमारी समझ में ‘झलमुली' का अर्थ झुलमुलाती हुई, अर्थात् झीने पट से ढेपे रहने के कारण कभी झलकती और कभी छिप जाती हुई कर के इसको ‘ओप' शब्द का विशषण मानना चाहिए । १८६ तथा ५३८ अंक के दोहा मैं जो ‘झलमले' शब्द क्रिया रूप से पड़ा है, उसी शब्द से यह ‘कुलमुली' शब्द विशेषण बना है । झलमलाना, झिलमिलाना तथा झुलमुलाना, ये तीनों शब्द वस्तुतः एक हो शब्द के रूपांतर मात्र है, और थोड़ थोड़े अर्थ-भेद से प्रयुक्त होते हैं ॥ लसति = विलास करती है, अर्थात् मंद मंद हिलती हुई सुशोभित होती है । ( अवतरण )-झोने पट में से फूट कर निकलती हुई नायिका के शरीर की झलक पर रीझ कर मायक स्वगत कहता है ( अर्थ )-[ अहा ! इसकी ] झुलमुली (झुलमुलाती हुई ) अपार ओप झीने पट में से [ऐसी ] झलकती है, मानो कल्पवृक्ष की पल्लवसहित डार समुद्र में विलास कर रही है ॥ ‘सपल्लव डार' इसलिए कहा है कि हाथ, पाव, ओठ तथा कान की उपमा पल्लव से दी जाती है । डारे ठोड़ी-गाड़, गहि नैन-बटोही, मारि । चिजक-चैध मैं रूप-ठग, हाँसी-फाँसी डारि ॥ १७ ॥ ठोड़ी-गाड़ = द्वी का गड़हा ॥ बटोही= बाट चलने वाले, पथिक । चिलक= चमक । चौध-पथिकों को जो कि किसी रात को, अधिक रात्रि रहने पर भी, तारों इत्यादि के प्रकाश के कारण, सबेरा होता सा प्रतीत होने लगता है, और जिससे चा धिया कर, अथर धोखा खा कर, वे उसी समय मार्ग चल पड़ते हैं, उस धोखा देने वाले प्रकाश का चांधा अथवा चाध, अथान् चमक से ग्राखा’ का अंध करने वाला, भ्रम में डालने वाला, कहते हैं। इसी का नाम फ़ारसी भाषा म’ ‘सुबह काज़िब' है । ऐसे चाध से धोखा खा कर जब पथिक अधिक रात्रि रहन पर भी बल पड़ते हैं, ना ठगा की वन ग्राती है । वे उनको फाँना डाल कर मार डालते और किसी गड़हे में डाल देते हैं । ( अवतरण )-नायक के नेत्र नायिका के शरीर शोभा देखते देखते मोहित हो कर उसकी डी के गबहे मैं पड़ गए हैं, और अब वहाँ से शोभाधिक्य के कारण नहीं टल पात । अपने नयन की यह व्यवस्था नायक, नायिका की शोभा का वर्णन करता हुआ, स्वगत कहता है-- | ( अर्थ )-[ उसके ] सौंदर्य-रूपी ठग ने चिलक-रूपी चौध में [ मेरे ] नयन-रूपी पथिकों को घेर कर, हँसी रूपी फाँसी डाल, मार कर ठोड़ी के गड़हे में डाल दिया [ एवं वे बेचारे अब वह पड़े हुए हैं ] ॥ इस दोहे के भाव से २६ अंक के दोहे का भाव बहुत मिलता है । कीनैं हूँ कोरिक जतन अब कहि काढ़े कौनु । भो मन मोहन-रू] मिलि पानी मैं कौ लौनु ॥ १८ ॥ मन = मानस । यह शब्द यहां श्लिष्ट है । इसका पहिला अर्थ मन और दुसरा अर्थ मान१. ऊ (४, ५) । २. रूप ( १, २, ४, ५ ) ।