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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर सरोवर है । इस श्लेष के कारण ‘मन’ शब्द में श्लेष-मूलक रूपक है । अतः मन का अर्थ यहाँ मन-रूपी मानसरोवर हुआ । १५० अंक के दोहे में भी ‘मन’ शब्द का ऐसा ही प्रयोग है ।। ( अवतरण )-सखी की शिक्षा सुन कर नायिका कहती है कि अब मेरे मन से मोहन का लावण्यमय रूप किसी उपाय से निकल नहीं सकता । तेरा शिक्षा देना वृथा है ( अर्थ )-मोहन का [ लावण्यमय ] रूप [ मेरे ] मन-रूपी मानसरोवर में मिल कर पानी में का ( पानी में घुला हुआ ) लवण हो गया है। अब [१] कह ( बतला ) [ तो सही कि ] कोटिक यत्न करने पर भी [ उसको उसमें से ] कौन निकाले ( निकाल सकता है ) ॥ प्रायः टीकाकारों ने 'मन' को कत और मोहन-रूप को अधिकरण मान कर अर्थ किया है। वह भी बुरा नहीं है। इस अर्थ मैं ‘मन’ को उकारांत, तथा 'मोहन-रूपु' को अकारांत मानना होगा । लग्यो सुमनु है है सफलु, आतैप-रोसु निवारि । बारी बारी अपनी सींचि सुहृदता-बारि ॥ १९ ॥ सुमनु=(१) सो मन । ( २ ) पुष्प ॥ सफलु =(१) प्राप्ताभीष्ट, प्राप्तकामना । ( २ ) फलयुत ॥ आतपरोसु ( तप-रोष )=(१) ताप देने वाला अर्थात् दुःख देने वाला रोष । (२) तप अर्थात् घाम का रोष अर्थात् तीक्ष्णता, प्रचंडता । बारी=( १ ) बालिका अर्थात् अनुभव-रहित स्त्री । ( २ ) माली, उद्यान का रक्षक । वाट का अर्थ उद्यान है । अतः वाटी का अर्थ उद्यान-संबंधी मनुष्य अर्थात् माली हुआ । इसी शब्द से, ‘ट' को 'र' आदेश हो कर, बारी शब्द बना है, जो कि इस समय एक जाति विशेष का वाचक है । इस समय बारियाँ का मुख्य काम पत्तल, दोना बनाना है । यह काम पहिले उपवन-रक्षक ही का था ॥ बारी =(१) पारी अर्थात् अपने यहाँ नायक के आने की पारी । (२) वाटिका ॥ सुहृदता=(१) मैत्री, प्रेम । (२) सात्म्य, उपयोगिता ।। बारि (वारि )=(१) वाक्, सरस्वती । यहाँ इसका अर्थ वचन लेना चाहिए। ( २ ) जल ।। सुहृदता-वारि=( १ ) मित्रता के वचन । ( २ ) सुहृदता का जल, सात्म अर्थात् सानुकूल जल अर्थात् ऐसा जल, जो बारी को यथेष्ट लाभदायी हो । जिस प्रकार सुहृदता के वारि (वचन) का अर्थ ऐसा वचन, जिसमें मित्रता की सरसता हो, होता है, उसी प्रकार सुहृदता के वारि ( जल ) का अर्थ ऐसा जल होता है, जिसमें सानुकूलता के गुण हों, अर्थात स्वच्छ, शीतल तथा मधुर जल, जो बारी के निमित्त हितकारी होता है ॥ वि, इस पूरे दोहे में श्लेष-बल से दो अर्थ रख कर, नायिका से उसके इष्ट की गुप्त बात, सखीद्वारा, माली तथा बहिरंगिनी सखिय के सामने ही, कहला देता है; पर उन लोगों का ध्यान, दूसरे ही अर्थ में उलझ कर, मुख्य अभिप्राय की ओर नहीं जाने पाता ॥ (अवतरण )-आज इस नायिका के घर नायक के पधारने की पारी है, पर अभी तक वह आया नहीं है। नायिका का मन उसी में लगा हुआ है, और विलंब के कारण कुछ रुष्ट सी हो कर वह, जी बहलाने के निमित्त, वाटिका में भ्रमण कर रही है, जहाँ माली तथा कुछ बहिरंगिनी सखियाँ भी उपस्थित हैं। इतने में उसकी अंतरंगिनी सखी, जे नायक के पास गई थी, आ कर यह दोहा ऐसी चातुरी से पड़ती है कि नायिका तो अपना इष्टार्थ समझ ले, पर माली तथा बहिरांगनी सखियाँ समझे कि वह यह वाक्य माली से कइ रही है। नायिका-प्रति तो वह यह कहती है १. सुफल (४,५ ) । २. शातपु-रोस ( १, २ ), तप-रोस (४,५ )।