पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/५८

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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर ( अर्थ २)-अविच्छिन्न रूप से श्रुति (वेद) का सेवन करता हुआ [मनुष्य] आज तक भी तयौना ( अधोवर्ती ) ही [ बना ] रहा, [ और ! वेसरी (महा अधम प्राणी ) ने [ भी ] सुक्नों (जीवन-मुक्न सजनों ) के संग वस कर नाक-वास ( स्वर्ग निवास ) राप्त किया ॥ टीकाकारों ने, प्रायः सत्संगति-प्रशंसा के पक्ष में, ‘तस्यौनाह' का अर्थ 'तरा नहीं किया है। वह अथे भी इस प्रकार जग सकता है | एक रूप से श्रुति का सेवन करता हुआ [ मनुष्य ] अाज तक भी विना तर ही रहा, [ और ] बेसरी ( महा अधम प्राणी ) ने मुक़ ( जीवन-मुक़ सजन ) के संग चस कर स्वर्ग-निवास प्राप्त किया ॥ जम-करि-मुँह-तरहरि पखौ, इहिँ धरहरि चित लोउ।। विषय-तृषा परिहरि अर्जी नरहरि के गुन गाँउ ।। २१ ॥ तरहरि = नीचे ।। धरहरि= निश्चय ।। नरहरि=( १ ) नरसिंह भगवान् । ( २ ) कवि के दीक्षा-गुरु नरहरिदास । इनके विषय में विशेष जानने के लिये, भूमिका में, बिहारी की जीवनी द्रष्टव्य है ॥ ( अवतरण )—कवि की उक्कि अपने मन से ( अर्थ )-[१] यम-रूपी हाथी के मुंह के नीचे पड़ा हुआ है, इस निश्चय पर चित्त लगा, [ और ] अब भी विषय-तृष्णा छोड़ कर नरहरि के गुणों का गान कर ॥ पलनु पीक, अंजनु अधर, धरे महावरु भाल । आज मिले, सु भली करी; भले बने हौ लाल ॥ २२ ॥ महावरु- पहिली तथा दूसरी प्रतियों के अनुसार यह शब्द उकारांत ठहरता है, और चौथी तथा पाँचव प्रतियों के अनुसार अकारांत । हमने पहिली तथा दूसरी प्रतियों का अनुसरण कर के इसका उकारांत रक्खा है। 'आजु' ( अद्य )-अव्यय होने के कारण यद्यपि इस शब्द के उकारांत होने की कोई आवश्यकता नहीं है, पर व्रजभाषा के कवियों ने इसको प्रायः उकारांत ही लिखा है । सतसई में यह शब्द छः दोहों में आया है, और छवों स्थानों पर बिहारी ने इसको उकारांत ही लिखा है ॥ ( अवतरण )—प्रौढ़ा-धीरा-खंडिता नायिका की उक्ति नायक से ( अर्थ )-पलकों में [ पान का ] पीक, अधर पर अंजन, [ तथा ] भाल पर महावर धारण किए हुए (अर्थात् पलकों में अधर रँगने वाली वस्तु, अधर पर पलकों में देने वाली वस्तु एवं भाल पर पैरों में लगाने वाली वस्तु धारण किए हुए) आज [ जो तुम ] मिले हो, सो अच्छी बात की; [ वाहजी वाह !] अच्छे बने हो ॥ | इस दोहे मैं ‘भली' तथा 'भले' शब्द व्यंग्यात्मक हैं॥ १. तरिहरि ( १ ) । २. लाव (४) । ३. गाव ( ४ ) । ४. आज ( ५ )।