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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर ( अर्थ )-हे प्रवीण राधे !सुन, [ तू तो ऐसी सुंदर है कि और की कौन कहे, इंद्र की अप्सरा] उर्वशी को [ भी ] में तुझ पर वार हूँ । तू [ तो मोहन के उर में उरबसी [ भूषण ] के समान हो कर बसी है [ फिर दूसरी उनके उर में कैसे बस सकती है ] ॥ कुच-गिरि चढ़ि, अति थकित है, चली डीठि मुँह-चाड़। फिरि न टर, पैरियै रही, गिरी चिबुक की गाड़ ॥ २६ ॥ चाड़=लालच । यह शब्द चाट का रूपांतर है; जैसे शाटी का साड़ी, कीट का कीड़ा इत्यादि । चिबुक = अधर के नीचे का भाग ॥ ( अवतरण )-नायिका की शोभा का निरीक्षण केरता हुआ तथा चिबुक के गहे पर अत्यंत रीझा हुआ नायक स्वगत कहता है ( अर्थ )-[ मेरी ] दृष्टि कुच-रूपी पहाड़ पर चढ़ कर, अति थकित (शोभा से मुग्ध) हो कर [ भी ], मुख की चाड़ ( बाट, लालच ) से [ उधर ] चली । [ पर ] चिबुक की गाड़ ( गर्त, गढ़े, खाड़ी ) में गिर गई, [ श्रीर] फिर [ वहाँ से, अत्यंत थकित होने के कारण, ] टली नहीं, [ वहीं ] पड़ी ही रही । बेधक अनियारे नयन, बेधत केरि न निषेधु । बरबट बेधतु मो हियौ तो नासा की बेधु ॥ २७ ॥ अनियारे=अनी वाले, नुकीले ।। निषेधु=वह कार्य जो अपने लिए वर्जित हो, अनुचित कार्य । बरबट ( बलवत् )= बल-पूर्वक, बरबस ।। वेधुछिद्र ।।। ( अवतरण )-नायिका के सर्वांग-सौंदर्य पर रीझा हुआ नायक कहता है ( अर्थ )-[तेरे ] नुकीले नयन [ तो ] वेधक [ है ही, अतः वे कोई ] निषेध (अपने निमित्त निषिद्ध अर्थात् वर्जित काम ) कर के [ मेरे हृदय को ] नहीं बैधत ( अर्थात् वे मेरा हृदय बेधने में कोई अपने कर्तव्य के विरुद्ध काम नहीं करते )। तेरा [ तो ] नासा को बेध [ भी, जो कि स्वयं बेधा हुआ है, और जिसका काम बंधना नहीं है ] बरबट (बर बस, अपने लिए अविहित काम कर के ) मेरे हृदय को बेधता है [ भावार्थ यह हुआ कि तेरे सब अंग की शोभा हृदय को बेधती है, यहाँ तक कि तेरी नासा का छिट्स भी ] ॥ लौनै मुहुँ दाँठि न लँगै, यौं कहि दीनौ ईठि।। दुनी है लागन लगी, दियँ दिठौना, दीठि ।। २८ ॥ दीठि = कुदृष्टि ।। दीनौ-इस शब्द को कवि लोग प्रायः दीन्यो अथवा दीन्यौ बोलते और लिखते हैं। पर हमारी प्राचीन पुस्तकों के अनुसार 'दीन' ही पाठ ठीक ठहरता है । ' तसई में और कहाँ यह शब्द १. दीठे ( १ ) । २. मुख ( २ ) । ३. अरीय ( ५ ) । ४. परी ( १, ४, ५ ) । ५. कर ( ४, ५)। ६. तीनै ( १ ), लॉने ( २, ३, ५ ), जौने (४) । ७. डीठि ( २, ४, ५)। . लगौ ( १ )।