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२३ बिहारी-रत्नाकर शरीर-शुद्धि के निमित्त वैयक मैं जो पंचकर्म बतलाए गए हैं, उनमें एक स्नेहन भी है। इस रोगी को तेल अथवा घृत इत्यादि पिलाया जाता है। यदि स्नेह-पान मैं कुछ व्यतिक्रम पड़ जाता है, तो रोगी को बहुत तृषा लगती है। पानी से उसका पेट भर जाता है, पर तृषा बनी ही रहती है । इसी बात को नायिका ने अपने नेत्र पर घटा कर कहा है ॥ नहिँ परागु, नहिँ मधुर मधु, नहिँ बिकासु इहिँ काल । अली, कली ही स बँध्यौ, आमैं कौन हवाल ॥ ३८ ॥ बिकासु=खिलावट ॥ हवाल= दशा । यह अरबी शब्द हाल के बहुवचन अहवाल का अपभ्रंश है। ( अवतरण )-इस दोहे मैं, भ्रमर के व्याज से, कोई किसी मुग्धासक़ को शिक्षा देता है ( अर्थ )-न [ तो इसमें ] अभी पराग ( पुष्प-रज अर्थात् जवानी की रंगत ), न मधुर मधु (मीठा मकरंद अर्थात् सरसता), [ और] न विकास ( खिलावट अर्थात् यौवन के कारण अंगों में प्रफुल्लता ) [ ही ] है। हे भ्रमर, [ तू ऐसी कंज की ] कली ही से बँधा है। ( अपने सब कर्तव्य छोड़ कर उसी में लवलीन हो रहा है ), [ तो ] आगे [ चल कर जब उसमें पराग, मकरंद तथा विकास का आगमन होगा, तो फिर तेरी ] क्या दशा होगी ॥ लाल, तुम्हारे बिरह की अगनि अनूप, अपार । सरसै बरसैं नीर हूँ, झर हैं मिटै न झार ॥ ३९ ॥ अगनि = अग्नि । अनुप= जिसकी उपमा न हो, अद्भुत, विलक्षण ।। अपार= जिसका पार न पाया जाय, जो समाप्त न हो, बहुत ॥ सरसै = बढ़ती है ॥ झर-इस शब्द का अर्थ अन्य टीकाकारों ने मेघ का झड़ी बाँध कर लगातार बरसना किया है, पर यहाँ इसका यह अर्थ नहीं है। यहाँ इसका अर्थ है ताप अर्थात् ग्रीष्म का प्रचंड ताप अथवा लूछ । बिहारी ने इस शब्द का प्रयोग इस दोहे के अतिरिक्त और पाँच दोहों में छः बार किया है, जिनमें से तीन बार ( देखो दोहे ४०२, ५७०, ६४६ ) इसका प्रयोग पावक-लपट के अर्थ में हुआ है, एक बार ( देखो दोहा ६८ ) विरह-ताप के अर्थ में, और दो बार ( देखे। दोहे ४०२, ४८४ ) मेह की झड़ी के अर्थ में ॥ झार= जलन ।। ( अवतरण )-सखी अथवा दूसी नायक से नायिका का विरह निवेदन करती है| ( अर्थ )-हे लाल, तुम्हारे विरह की अग्नि विलक्षण [ तथा ] अपार है। [इसकी ] झार (जलन) नीर बरसने से भी बढ़ती है, [ और ] झर ( प्रीम के ताप ) से भी नहीं मिटती ॥ पानी से उसकी जलन का बदला तो विराग्नि की विलक्षणता है, और ताप से उसकी अलग का ५ मिटना उसकी अपारता । यदि कोई अंग थोड़ा बहुस जल जाता है, तो सँक देने से उसकी जबन मिट जाती है। पर पदि बहुत जख जाता है, तो सेंकने से कोई लाभ नहीं होता, प्रत्युत रानि ही होती है। १. अागि ( २ ), अगिनि ( ४ )।