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पृष्ठ:बिहारी-रत्नाकर.djvu/६६

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बिहारी-रत्नाकर

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बिहारी-रत्नाकर देह दुलहिया की बडै ज्यौं ज्यौं जोबन-जोति । त्य त्यौं लखि सौत्यै सबै बर्दैन मलिन दुति होति॥ ४० ॥ सौमैं = सौतों को । यह पद सौति शब्द के संग्रदानकारक का बहुवचन-रूप है ॥ ( अवतरण)-नवयौवना मुग्धा की सखियाँ आपस मैं सहर्ष कहती हैं ( अर्थ )-[ इस ] दुलहिन की देह में ज्यौं ज्यों यौवन की ज्योति बढ़ती है, त्यों यौं [ इसको ] देख कर [ इसकी ] सब ही सौतों को बदन में इति मलिन होती है। जगतु जनायौ जिहिँ सकलु, सो हरि जान्यौ नाँहि । ज्य आँखिनु सबु देखियै, आँखि न देखी जाँहि ॥ ४१ ।। जि=जिसके द्वारा ।। देखियै = देखा जाता है । ( अवतरण )-किसी आत्मज्ञानी की उक्ति स्वगत अथवा शिष्य से-- ( अर्थ )-जिस चिन्मय परमात्मा के द्वारा ( जिसके हृदय में स्थित होने के कारण ) सकल जगत् [ तुझसे ] जाना गया, वह हरि [ तूने ] नहीं जाना । जैसे आँखों के द्वारा सब [कुछ] देखा जाता है, [ पर ] आँखें [ स्वयं ] नहीं देखी जातीं ॥ ॐ सोरठा % मंगलु बिंदु सुरंगु, मुख ससि, केसरि-आड़ गुरु । इक नारी लहि संगु रसमय किय लोचन-जगत ॥ ४२ ॥ सुरंगु= सुंदर रंग वाला । यहाँ इसका अर्थ लाल है ॥ आड़ = अड़ा तिलक ॥ नारी—यह शब्द यहाँ श्लिष्ट है-( १ ) नारी, स्त्री । ( २ ) चंडा, समीरा इत्यादि सात नाड़ियों में से कोई नाड़ी । वर्षाज्ञान के निमित्त ज्योतिष में सात नाड़ियाँ मानी जाती हैं। इनमें से प्रत्येक की गति चार चार नक्षत्रों में सर्पाकार होता है । जब चंद्रमा, मंगल तथा बृहस्पति ग्रहों की स्थिति ऐसी होती है कि वे एक ही नाड़ी के चारों नक्षत्रों में से किसी पर होते हैं-चाहे चारों नक्षत्रों में से किसी एक ही पर, अथवा भिन्न भिन्न पर-- तो जगद्वथापिनी वृष्टि होती है, यथा--- एकनाड़ीसमारूढौ चंद्रमाधरणीसुतौ । यदि तत्र भवेज्जीवस्तदेकार्णविता मही ।। ( नरपतिजयचर्या, अध्याय ३, श्लो० २९ ) रस-यह शब्द भी श्लिष्ट है—( १ ) अनुराग, श्रृंगार-रस । ( २ ) जल । इसमें भी श्लिष्टपदमूलक रूपक है, और इसका अर्थ अनुराग-रूपी जल है ॥ किय–यह रूप कियौ के स्थान पर बिहारी ने २१२ संख्यक दोहे में भी प्रयुक्त किया है । अन्य कवियों तथा गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी इस अर्थ में इस रूप का प्रयोग बहुत किया है ॥ लोचन-जगत= लोचन-रूपी जगत् ।। | १. चदै ( १ ) । २. सोते ( ४ ), सोय ( ५ ) । ३. मलिन बदन, इति ( २ ) । ४. जगु ( २ ) । ५. केसर (४, ५ )।