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बिहारी-रत्नाकर

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विहारी-रत्नाकर बिहारी की लेख-प्रणाली के अनुसार पहिले अर्थ के निमित्त 'कानन' शब्द को उकारांत, अर्थात् 'काननु', होना चाहिए । पर बिहारी के समय ही में ऐसे शब्दों को अकारांत लिखने की प्रथा प्रचलित हो चली थी, और यद्यपि बिहारी इस प्रथा का अनुकरण स्वतंत्रता-पूर्वक तो नहीं करते थे, पर इस दोहे में, श्लेष के निर्वाहार्थ, उन्होंने उक्त प्रचार से लाभ उठा कर, कान के बहुवचन काननु को भी अकारांत ही मान लिया, क्योंकि दूसरे अर्थ के निमित्त 'कामन-चारी' समस्त पद का ‘कानन' ( जंगल ) शब्द उकारांत नहीं हो सकता । श्लेषालंकार में ऐसे प्रयोगों का निर्वाह माना भी जाता है ।। ( अवतरण )-नायिका की अंतरंगिनी सखी उसके नेत्र-द्वारा नायक के घायल होने का वृत्तांत उससे, परिहासात्मक वाक्य मैं, कहती है । वह चातुरी से नायक का नाम नहीं लेती, प्रत्युत घायल होने वाले के निमित्त बहुवचन ‘नागर नरनु’ पद प्रयुक़ कर के सामान्यतः कहती है कि तेरे नेत्र से प्रवीण नरों का शिकार होता है। वह सोचती है कि यह सुन कर जब मायिका पूछेगी कि मेरे नै ने किसका शिकार किया है, तब नायक का नाम बतला देंगी | ( अर्थ ) हे अली ! कामदेव-रूपी चतुर अहेरी ने [ तेरे ]कानद-चारी ( कानों तक जाने वाले, वन-चारी ) नयन-रूपी मृगों को भली भाँति ( बड़ी विलक्षण रीति से) मगर निवासी ( सुधर ) नरों का शिकार करना सिखलाया है ॥ | मृर्गों का आखेट करना तो नगर-निवास न को सामान्यतः अहेरी सिखलाते ही हैं। पर कामदेव-रूपी अहेरी ने यह विलक्षण चातुरी की है कि कानन-चारी नयन-रूपी मृग को नगर-निवासी ( सुघर ) नरों का आखेट करना सिखलाया है। रससिँगार-मंजनु किए, कंजनु भंजनु वैन । अंजनु रंजनु हूँ थिना खंजनु गंजनु, नैन ॥ ४६॥ रससिँगार-मंजनु किए= श्रृंगार-रसोचित हाव, भाव, कटाक्षादि में निमग्न, अथवा उनको माँजे हुए अर्थात् उनमें दक्ष ॥ कंजनु= कंजों को ।। भेजनुमान-भंग, पराजय ॥ अंजनु रंजनु हैं बिना= अंजन रँगने ( लगाने ) के विना भी ॥ खंजनु-भाषा में खंजन तथा खंज, दोनों रूप खंजन के अर्थ में प्रयुक्त होते हैं । 'खंजनु' पद यहाँ खंज शब्द का बहुवचन है । इसके पश्चात् के संप्रदानार्थक क का लोप है, अतः यह पद यहाँ संप्रदानकारक-वत् प्रयुक्त हुआ है । इसका अर्थ यहाँ खंजों को होता है । गंजनु= तिरस्कार । यह पद यहाँ कर्मकारक-रूप से प्रयुक्त हुआ है । इसके पश्चात् 'दैन’ को अध्याहार होता है, और उसी “दैन' पद का यह कर्म है । ( अवतरण )-नायिका के नेत्र की प्रशंसा नायक अथवा सखी-द्वारा ( अर्थ )-शृंगार-रस में मज्जन किए हुए (शृंगार-रसोचित हाव, भाव, कटाक्षादि से परिष्कृत-पानी दिए हुए, अथवा उनमें निमग्न ) [ये तेरे ] नयन [अपनी स्वच्छता से] कंजों को [ जो कि सदैव जल में मञ्जित रहने के कारण स्वच्छ रहते हैं ] भंजन ( मानमर्दन, पराजय ) देने वाले हैं, [ और अपनी स्वाभाविक श्यामता से ] अंजन लगाने के विना भी बंजों को तिरस्कार [ देने वाले ]॥